आरजू की थी इक आशियाने की; आंधियां चल पड़ी ज़माने की; मेरे ग़म को कोई समझ ना पाया; क्योंकि मुझे आदत थी मुस्कुराने की!
Like (0) Dislike (0)
आरजू की थी इक आशियाने की; आंधियां चल पड़ी ज़माने की; मेरे ग़म को कोई समझ ना पाया; क्योंकि मुझे आदत थी मुस्कुराने की!
Your Comment