तूने नफ़रत से जो देखा है तो याद आया; कितने रिश्ते तेरी ख़ातिर यूँ ही तोड़ आया हूँ; कितने धुंधले हैं ये चेहरे जिन्हें अपनाया है; कितनी उजली थी वो आँखें जिन्हें छोड़ आया हूँ।

बर्बादी का दोष दुश्मनों को देता रहा मैं अब तलक; दोस्तों को भी परख लिया होता तो अच्छा होता; यूँ तो हर मोड़ पर मिले कुछ दगाबाज लेकिन; आस्तीन को भी झठक लिया होता तो अच्छा होता।

वो जिनके घर मेहमानों का आना-जाना होता है; उनको घर का हर कमरा हर रोज़ सजाना होता है; जिस देहरी की क़िस्मत में स्वागत या वंदनवार न हों; उस चौखट के भीतर केवल इक तहख़ाना होता है।

दुनिया ने हम पे जब कोई इल्ज़ाम रख दिया; हमने मुक़ाबिल उसके तेरा नाम रख दिया; इक ख़ास हद पे आ गई जब तेरी बेरुख़ी; नाम उसका हमने गर्दिशे-अय्याम रख दिया। शब्दार्थ: गर्दिशे-अय्याम = समय का चक्कर

जहाँ दरिया कहीं अपने किनारे छोड़ देता है; कोई उठता है और तूफाँ का रुख मोड़ देता है; मुझे बे-दस्त-ओ-पा कर के भी खौफ उसका नहीं जाता; कहीं भी हादसा गुज़रे वो मुझसे जोड़ देता है। शब्दार्थ: बे-दस्त-ओ-पा = असहाय

मैंने कब चाहा कि... मैंने कब चाहा कि मैं उस की तमन्ना हो जाऊँ; ये भी क्या कम है अगर उस को गवारा हो जाऊँ; मुझ को ऊँचाई से गिरना भी है मंज़ूर अगर; उस की पलकों से जो टूटे वो सितारा हो जाऊँ; लेकर इक अज़्म उठूँ रोज़ नई भीड़ के साथ; फिर वही भीड़ छटे और मैं तनहा हो जाऊँ; जब तलक महवे-नज़र हूँ मैं तमाशाई हूँ; टुक निगाहें जो हटा लूं तो तमाशा हो जाऊँ; मैं वो बेकार सा पल हूँ न कोइ शब्द न सुर; वह अगर मुझ को रचाले तो हमेशा हो जाऊँ; आगही मेरा मरज़ भी है मुदावा भी है साज़ ; जिस से मरता हूँ उसी ज़हर से अच्छा हो जाऊँ।