शायर-ए-फ़ितरत हूँ मैं जब फ़िक्र फ़र्माता हूँ; तो रूह बन कर ज़र्रे-ज़र्रे में समा जाता हूँ; आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त घबराता हूँ; जैसे हर शै में किसी शै की कमी पाता हूँ।
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शायर-ए-फ़ितरत हूँ मैं जब फ़िक्र फ़र्माता हूँ; तो रूह बन कर ज़र्रे-ज़र्रे में समा जाता हूँ; आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त घबराता हूँ; जैसे हर शै में किसी शै की कमी पाता हूँ।
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