इस तरफ से गुज़रे थे काफ़िले बहारों के; आज तक सुलगते हैं ज़ख्म रहगुज़ारों के; खल्वतों के शैदाई खल्वतों में खुलते हैं; हम से पूछ कर देखो राज़ पर्दादारों के; पहले हँस के मिलते हैं फिर नज़र चुराते हैं; आश्ना-सिफ़त हैं लोग अजनबी दियारों के; तुमने सिर्फ चाहा है हमने छू के देखे हैं; पैरहन घटाओं के जिस्म बर्क-पारों के; शगले-मयपरस्ती गो जश्ने-नामुरादी है; यूँ भी कट गए कुछ दिन तेरे सोगवारों के।

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