कहाँ क़ातिल बदलते हैं... कहाँ क़ातिल बदलते हैं फ़क़त चेहरे बदलते हैं; अजब अपना सफ़र है फ़ासले भी साथ चलते हैं; बहुत कमजर्फ़ था जो महफ़िलों को कर गया वीराँ; न पूछो हाले चाराँ शाम को जब साए ढलते हैं; वो जिसकी रोशनी कच्चे घरों तक भी पहुँचती है; न वो सूरज निकलता है न अपने दिन बदलते हैं; कहाँ तक दोस्तों की बेदिली का हम करें मातम; चलो इस बार भी हम ही सरे मक़तल निकलते हैं; हम अहले दर्द ने ये राज़ आखिर पा लिया जालिब ; कि दीप ऊँचे मकानों में हमारे खून से जलते हैं।

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