काँटा सा जो चुभा था... काँटा सा जो चुभा था वो लौ दे गया है क्या; घुलता हुआ लहू में ये ख़ुर्शीद सा है क्या; पलकों के बीच सारे उजाले सिमट गए; साया न साथ दे ये वही मरहला है क्या; मैं आँधियों के पास तलाश-ए-सबा में हूँ; तुम मुझ से पूछते हो मेरा हौसला है क्या; साग़र हूँ और मौज के हर दाएरे में हूँ; साहिल पे कोई नक़्श-ए-क़दम खो गया है क्या; सौ सौ तरह लिखा तो सही हर्फ़-ए-आरज़ू; इक हर्फ़-ए-आरज़ू ही मेरी इंतिहा है क्या; क्या फिर किसी ने क़र्ज़-ए-मुरव्वत अदा किया; क्यों आँख बे-सवाल है दिल फिर दुखा है क्या।

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