जब रूख़-ए-हुस्न से नक़ाब उठा... जब रूख़-ए-हुस्न से नक़ाब उठा; बन के हर ज़र्रा आफ़्ताब उठा; डूबी जाती है ज़ब्त की कश्ती; दिल में तूफ़ान-ए-इजि़्तराब उठा; मरने वाले फ़ना भी पर्दा है; उठ सके गर तो ये हिजाब उठा; हम तो आँखों का नूर खो बैठे; उन के चेहरे से क्या नक़ाब उठा; आलम-ए-हुस्न-ए-सादगी तौबा; इश्क़ खा खा के पेच-ओ-ताब उठा; होश नक़्स-ए-ख़ुदी है ऐ एहसान ; ला उठा शीशा-ए-शराब उठा।

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