तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म... तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते है; किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते है; हदीस-ए-यार के उनवाँ निखरने लगते है; तो हर हरीम में गेसू सँवरने लगते है; हर अजनबी हमें महरम दिखाई देता है; जो अब भी तेरी गली गली से गुज़रने लगते हैं; सबा से करते हैं ग़ुर्बत-नसीब ज़िक्र-ए-वतन; तो चश्म-ए-सुबह में आँसू उभरने लगते हैं; वो जब भी करते हैं इस नुत्क़-ओ-लब की बख़ियागरी; फ़ज़ा में और भी नग़्में बिखरने लगते हैं; दर-ए-क़फ़स पे अँधेरे की मुहर लगती है; तो फ़ैज़ दिल में सितारे उतरने लगते है।

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