दूर से आये थे... दूर से आये थे साक़ी सुनके मयख़ाने को हम; बस तरसते ही चले अफ़सोस पैमाने को हम; मय भी है मीना भी है साग़र भी है साक़ी नहीं; दिल में आता है लगा दें आग मयख़ाने को हम; हमको फँसना था क़फ़ज़ में क्या गिला सय्याद का; बस तरसते ही रहे हैं आब और दाने को हम; बाग में लगता नहीं सहरा में घबराता है दिल; अब कहाँ ले जा कर बिठाऐं ऐसे दीवाने को हम; ताक-ए-आबरू में सनम के क्या ख़ुदाई रह गई; अब तो पूजेंगे उसी क़ाफ़िर के बुतख़ाने को हम; क्या हुई तक़्सीर हम से तू बता दे ए नज़ीर ; ताकि शादी मर्ग समझें ऐसे मर जाने को हम।

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