भूला हूँ मैं आलम को सर-शार इसे कहते हैं; मस्ती में नहीं ग़ाफ़िल हुश्यार इसे कहते हैं; गेसू इसे कहते हैं रुख़सार इसे कहते हैं; सुम्बुल इसे कहते हैं गुल-ज़ार इसे कहते हैं; इक रिश्ता-ए-उल्फ़त में गर्दन है हज़ारों की; तस्बीह इसे कहते हैं ज़ुन्नार इसे कहते हैं; महशर का किया वादा याँ शक्ल न दिखलाई; इक़रार इसे कहते हैं इंकार इसे कहते हैं; टकराता हूँ सर अपना क्या क्या दर-ए-जानाँ से; जुम्बिश भी नहीं करती दीवार इसे कहते हैं; ख़ामोश अमानत है कुछ उफ़ भी नहीं करता; क्या क्या नहीं ऐ प्यारे अग़्यार इसे कहते हैं।

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