महक उठा है आँगन... महक उठा है आँगन इस ख़बर से; वो ख़ुशबू लौट आई है सफ़र से; जुदाई ने उसे देखा सर-ए-बाम; दरीचे पर शफ़क़ के रंग बरसे; मैं इस दीवार पर चढ़ तो गया था; उतारे कौन अब दीवार पर से; गिला है एक गली से शहर-ए-दिल की; मैं लड़ता फिर रहा हूँ शहर भर से; उसे देखे ज़माने भर का ये चाँद; हमारी चाँदनी छाए तो तरसे; मेरे मानन गुज़रा कर मेरी जान; कभी तू खुद भी अपनी रहगुज़र से।

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