ये आरज़ू थी तुझे गुल के... ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते; हम और बुलबुल-ए-बेताब गुफ़्तगू करते; पयाम बर न मयस्सर हुआ तो ख़ूब हुआ; ज़बान-ए-ग़ैर से क्या शर की आरज़ू करते; मेरी तरह से माह-ओ-महर भी हैं आवारा; किसी हबीब को ये भी हैं जुस्तजू करते; जो देखते तेरी ज़ंजीर-ए-ज़ुल्फ़ का आलम; असीर होने के आज़ाद आरज़ू करते; न पूछ आलम-ए-बरगश्ता तालि-ए-आतिश; बरसती आग में जो बाराँ की आरज़ू करते।

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