रोज़ तारों की नुमाइश में... रोज़ तारों की नुमाइश में ख़लल पड़ता है; चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है; एक दीवाना मुसाफ़िर है मेरी आँखों में; वक़्त-बे-वक़्त ठहर जाता है चल पड़ता है; रोज़ पत्थर की हिमायत में ग़ज़ल लिखते है; रोज़ शीशों से कोई काम निकल पड़ता है; उसकी याद आई है साँसों ज़रा आहिस्ता चलो; धडकनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है।

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