हर शाम जलते जिस्मों का गाढ़ा धुआँ है शहर; मरघट कहाँ है कोई बताओ कहाँ है यह शहर; फुटपाथ पर जो लाश पड़ी है उसी की है; जिस गाँव को यकीं था की रोज़ी-रसाँ है शहर; मर जाइए तो नाम-ओ-नसब पूछता नहीं; मुर्दों के सिलसिले में बहुत मेहरबाँ है शहर; रह-रह कर चीख़ उठते हैं सन्नाटे रात को; जंगल छुपे हुए हैं वहीं पर जहाँ है शहर; भूचाल आते रहते हैं और टूटता नहीं; हम जैसे मुफ़लिसों की तरह सख़्त जाँ है शहर; लटका हुआ ट्रेन के डिब्बों में सुबह-ओ-शाम; लगता है अपनी मौत के मुँह में रवाँ है शहर।

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