अपनी मर्ज़ी से कहाँ...अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम है;रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम है;पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है;अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम है;वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से;किसको मालूम कहाँ के हैं किधर के हम हैं;चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब;सोचते रहते हैं किस राहग़ुज़र के हम है।
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