अंगराई लेके अपना मुझ पर जो खुमार डाला; काफ़िर की इस अदा ने बस मुझको मार डाला।

तुम्हारी जुल्फ के साये में शाम कर लूंगा; सफर इस उम्र का पल में तमाम कर लूंगा!

मुस्कुरा के देखा तो कलेजे में चुभ गयी; खँजर से भी तेज़ लगती हैं आँखें जनाब की...

आफ़त तो है वो नाज़ भी अंदाज़ भी लेकिन; मरता हूँ मैं जिस पर वो अदा और ही कुछ है।

कितने नाज़ुक मिजाज़ हैं वो कुछ न पूछिये;​ नींद नही आती है उन्हें धड़कन के शोर से।

रख के मुँह सो गए हम आतिशीं रुख़्सारों पर; दिल को था चैन तो नींद आ गई अँगारों पर।

चाँद के दीदार में तुम छत पर क्या चली आई​​;​ शहर में ईद की तारीख मुक्कमल हो गयी​...

लोग कहते हैं जिन्हें नील कंवल वो तो क़तील; शब को इन झील सी आँखों में खिला करते है।

हमें रोता देखकर वो ये...
कह के चल दिए कि...
रोता तो हर कोई है....
क्या हम सब के हो जाएँ…

तेरे हुस्न को परदे की ज़रूरत ही क्या है ज़ालिम; कौन रहता है होश में तुझे देखने के बाद।

वो करें भी तो किन अल्फ़ाज़ में तेरा शिकवा; जिन को तेरी निगह-ए-लुत्फ़ ने बर्बाद किया।

उसको सजने की संवरने की ज़रूरत​ ​ही नहीं​​;​ ​ उस पे सजती है हया भी किसी जेवर ​की तरह...​​

हमारा क़त्ल करने की उनकी साजिश तो देखो; गुज़रे जब करीब से तो चेहरे से पर्दा हटा लिया।

पर्दा-ए-लुत्फ़ में ये ज़ुल्म-ओ-सितम क्या कहिए; हाए ज़ालिम तिरा अंदाज़-ए-करम क्या कहिए।

तेरी आँखों के जादू से तू ख़ुद नहीं है वाकिफ़; ये उसे भी जीना सिखा देती हैं जिसे मरने का शौक़ हो।