बिछड़ के तुम से ज़िंदगी सज़ा लगती है; यह साँस भी जैसे मुझ से ख़फ़ा लगती है; तड़प उठता हूँ दर्द के मारे ज़ख्मों को जब तेरे शहर की हवा लगती है; अगर उम्मीद-ए-वफ़ा करूँ तो किस से करूँ; मुझ को तो मेरी ज़िंदगी भी बेवफ़ा लगती है।
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बिछड़ के तुम से ज़िंदगी सज़ा लगती है; यह साँस भी जैसे मुझ से ख़फ़ा लगती है; तड़प उठता हूँ दर्द के मारे ज़ख्मों को जब तेरे शहर की हवा लगती है; अगर उम्मीद-ए-वफ़ा करूँ तो किस से करूँ; मुझ को तो मेरी ज़िंदगी भी बेवफ़ा लगती है।
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