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नज़रनज़र का फर्क है हुस्न का
नज़रनज़र का फर्क है हुस्न का
नज़र-नज़र का फर्क है, हुस्न का नहीं ;
महबूब जिसका भी हो बेमिसाल होता है !!
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कैसे भुला दूँ उस भूलने वाले
रात हुई जब शाम के बाद
शायरी से भरे पन्नों को छूकर
नया कुछ भी नहीं हमदम वही
कितने चेहरे हैं इस दुनिया में;
वो कहते हैं बता तेरा दर्द
अब सज़ा दे ही चुके हो
एक तेरी ख़ामोशी जला देती है
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