दोस्त बनकर भी नहीं... दोस्त बनकर भी नहीं साथ निभाने वाला; वो ही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़माने वाला; क्या कहें कितने मरासिम थे हमारे उससे; वो जो इक शख़्स है मुँह फेर के जाने वाला; क्या ख़बर थी जो मेरी जाँ में घुला रहता है; है वही मुझको सर-ए-दार भी लाने वाला; मैंने देखा है बहारों में चमन को जलते; है कोई ख़्वाब की ताबीर बताने वाला; तुम तक़ल्लुफ़ को भी इख़लास समझते हो फ़राज़ ; दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला।

तुम हक़ीक़त नहीं हो हसरत हो; जो मिले ख़्वाब में वो दौलत हो; तुम हो ख़ुशबू के ख़्वाब की ख़ुशबू; औए इतने ही बेमुरव्वत हो; तुम हो पहलू में पर क़रार नहीं; यानी ऐसा है जैसे फुरक़त हो; है मेरी आरज़ू के मेरे सिवा; तुम्हें सब शायरों से वहशत हो; किस तरह छोड़ दूँ तुम्हें जानाँ; तुम मेरी ज़िन्दगी की आदत हो; किस लिए देखते हो आईना; तुम तो ख़ुद से भी ख़ूबसूरत हो; दास्ताँ ख़त्म होने वाली है; तुम मेरी आख़िरी मोहब्बत हो।

दिल को जब अपने गुनाहों का ख़याल आ जायेगा; साफ़ और शफ्फ़ाफ़ आईने में बाल आ जायेगा; भूल जायेंगी ये सारी क़हक़हों की आदतें; तेरी खुशहाली के सर पर जब ज़वाल आ जायेगा; मुसतक़िल सुनते रहे गर दास्ताने कोह कन; बे हुनर हाथों में भी एक दिन कमाल आ जायेगा; ठोकरों पर ठोकरे बन जायेंगी दरसे हयात; एक दिन दीवाने में भी ऐतेदाल आ जायेगा; बहरे हाजत जो बढ़े हैं वो सिमट जायेंगे ख़ुद; जब भी उन हाथों से देने का सवाल आ जायेगा।

बिछड़ा है जो एक बार तो... बिछड़ा है जो एक बार तो मिलते नहीं देखा; इस ज़ख़्म को हमने कभी सिलते नहीं देखा; इस बार जिसे चाट गई धूप की ख़्वाहिश; फिर शाख़ पे उस फूल को खिलते नहीं देखा; यक-लख़्त गिरा है तो जड़ें तक निकल आईं; जिस पेड़ को आँधी में भी हिलते नहीं देखा; काँटों में घिरे फूल को चूम आयेगी तितली; तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा; किस तरह मेरी रूह हरी कर गया आख़िर; वो ज़हर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा।

घर का रास्ता भी मिला था शायद... घर का रास्ता भी मिला था शायद; राह में संग-ए-वफ़ा था शायद; इस क़दर तेज़ हवा के झोंके; शाख़ पर फूल खिला था शायद; जिस की बातों के फ़साने लिखे; उस ने तो कुछ न कहा था शायद; लोग बे-मेहर न होते होंगे; वहम सा दिल को हुआ था शायद; तुझ को भूले तो दुआ तक भूले; और वही वक़्त-ए-दुआ था शायद; ख़ून-ए-दिल में तो डुबोया था क़लम; और फिर कुछ न लिखा था शायद; दिल का जो रंग है ये रंग-ए- अदा ; पहले आँखों में रचा था शायद।

फांसले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था... फांसले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था; सामने बैठा था मेरे और वो मेरा न था; वो कि ख़ुशबू की तरह फैला था मेरे चार सू; मैं उसे महसूस कर सकता था छू सकता न था; रात भर पिछली ही आहट कान में आती रही; झाँक कर देखा गली में कोई भी आया न था; ख़ुद चढ़ा रखे थे तन पर अजनबीयत के गिलाफ़; वर्ना कब एक दूसरे को हमने पहचाना न था; याद कर के और भी तकलीफ़ होती थी अदीम ; भूल जाने के सिवा अब कोई भी चारा न था।

है हकीक़त में वही... है हकीक़त में वही प्यार को पाने वाले; अपने महबूब को पलकों पर बिठाने वाले; दिल की वीरानी को ख़ुशियों से सजाने वाले; इश्क़ का रोग जो खुद को है लगाने वाले; ज़िक्र तेरा भी वफ़ा वालों में होगा ऐ दोस्त; याद में बेवफ़ाई का दीप जलाने वाले; तेरे क़दमों में ये सारा जहां होगा एक दिन; माँ के होठों पे तबस्सुम को सजाने वाले; प्यार-ओ-उल्फ़त वफ़ा हमदर्दी मोहब्बत ये सब; कौन है दुनिया में अब इन को निभाने वाले।

एक दिन मुझसे कहा भगवान ने... भगवान: मत कर इंतज़ार उसका मिलना मुश्किल है; मैं: लेने दे मज़ा इंतज़ार का अगले जन्म में तो मुमकिन है; भगवान: मत कर इतना प्यार पछताएगा; मैं: देखते है तु कितना रूह को तडपाएगा; भगवान: छोड़ उसे चल तुझे जन्नत की अप्सरा से मिलवाता हूँ; मैं: नीचे आ देख चेहरा मेरे प्यार का जन्नत की अप्सरा भुलवाता हूँ; भगवान: मत भूल कि तु सिर्फ एक इंसान है; मैं: मिला दे मुझे मेरे प्यार से और साबित कर कि तु भगवान है।

तुझे इज़हार-ए-मोहब्बत... तुझे इज़हार-ए-मोहब्बत से अगर नफ़रत है; तूने होठों के लरज़ने को तो रोका होता; बे-नियाज़ी से मगर कांपती आवाज़ के साथ; तूने घबरा के मेरा नाम न पूछा होता; तेरे बस में थी अगर मशाल-ए-जज़्बात की लौ; तेरे रुख्सार में गुलज़ार न भड़का होता; यूं तो मुझसे हुई सिर्फ़ आब-ओ-हवा की बातें; अपने टूटे हुए फ़िरक़ों को तो परखा होता; यूं ही बेवजह ठिठकने की ज़रूरत क्या थी; दम-ए-रुख्सत में अगर याद न आया होता।

ख़ून से जब जला दिया... ख़ून से जब जला दिया एक दिया बुझा हुआ; फिर मुझे दे दिया गया एक दिया बुझा हुआ; महफ़िल-ए-रंग-ओ-नूर की फिर मुझे याद आ गई; फिर मुझे याद आ गया एक दिया बुझा हुआ; मुझ को निशात से फ़ुजूँ रस्म-ए-वफ़ा अज़ीज़ है; मेरा रफी़क़-ए-शब रहा एक दिया बुझा हुआ; दर्द की कायनात में मुझ से भी रौशनी रही; वैसे मेरी बिसात क्या एक दिया बुझा हुआ; सब मेरी रौशनी-ए-जाँ हर्फ़-ए-सुख़न में ढल गई; और मैं जैसे रह गया एक दिया बुझा हुआ।

न आते हमें इसमें तकरार क्या थी; मगर वादा करते हुए आर क्या थी; तुम्हारे पयामी ने ख़ुद राज़ खोला; ख़ता इसमें बन्दे की सरकार क्या थी; भरी बज़्म में अपने आशिक़ को ताड़ा; तेरी आँख मस्ती में होशियार क्या थी; तअम्मुल तो था उनको आने में क़ासिद; मगर ये बता तर्ज़े-इन्कार क्या थी; खिंचे ख़ुद-ब-ख़ुद जानिबे-तूर मूसा; कशिश तेरी ऐ शौक़े-दीदाए क्या थी; कहीं ज़िक्र रहता है इक़बाल तेरा; फ़ुसूँ था कोई तेरी गुफ़्तार क्या थी।

खामोश हो क्यों... खामोश हो क्यों दादे-जफ़ा क्यों नहीं देते; बिस्मिल हो तो कातिल को दुआ क्यों नहीं देते; वहशत का सबब रौज़ने-जिनदाँ तो नहीं है; महरो-महो-अंजुम को बुझा क्यों नहीं देते; इक ये भी तो अंदाज़े-इलाजे-गमे-जाँ है; ऐ चारागरो दर्द बढ़ा क्यों नहीं देते; मुंसिफ हो अगर तुम तो कब इन्साफ करोगे; मुजरिम हैं अगर हम तो सज़ा क्यों नहीं देते; रह्ज़न हो तो हाजिर है मताए-दिलो-जाँ भी; रहबर हो तो मंजिल का पता क्यों नहीं देते।

तेरी ख़ुशी से अगर ​...​​​तेरी ख़ुशी से अगर गम में भी ख़ुशी न हुई;​​वो जिंदगी तो मोहब्बत की जिंदगी न हुई;​​​​​किसी की मस्त निगाही ने हाथ थाम लिया;​​शरीके हाल जहाँ मेरी बेखुदी न हुई​;​​​ख्याल-ए-यार सलामत तुझे खुदा रखे​;​​तेरे बगैर कभी घर में रोशनी न हुई;​​​ ​​ इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी​;​​ कि हमने आह तो की उनसे आह भी न हुई​;​​​ ​​ गए थे हम भी जिगर जलवा गाहे-जानाँ में​;​ वो पूछते ही रहे हम से बात भी न हुई।

रहने को सदा...​रहने को सदा दहर में​ आता नहीं कोई​;तुम जैसे गए ऐसे भी​ जाता नहीं कोई;​​​​एक बार तो​ खुद मौत भी​ घबरा गयी होगी​;​यूँ मौत को​ सीने से लगाता नहीं कोई;​​​डरता हूँ​ कहीं खुश्क़ न हो जाए समुन्दर​;​राख अपनी कभी आप बहाता नहीं कोई;​​​​​ साक़ी से गिला था तुम्हें मैख़ाने से शिकवा​;​अब ज़हर से भी प्यास बुझाता नहीं कोई;​​​​​​माना कि उजालों ने तुम्हे दाग़ दिए थे​;​बे-रात ढले​ शम्मा​ बुझाता नहीं कोई​।

जहाँ में हाल मेरा... जहाँ में हाल मेरा इस क़दर ज़बून हुआ; कि मुझ को देख के बिस्मिल को भी सुकून हुआ; ग़रीब दिल ने बहुत आरज़ूएँ पैदा कीं; मगर नसीब का लिक्खा कि सब का ख़ून हुआ; वो अपने हुस्न से वाक़िफ़ मैं अपनी अक़्ल से सैर; उन्हों ने होश सँभाला मुझे जुनून हुआ; उम्मीद-ए-चश्म-ए-मुरव्वत कहाँ रही बाक़ी; ज़रिया बातों का जब सिर्फ़ टेलीफ़ोन हुआ; निगाह-ए-गर्म क्रिसमस में भी रही हम पर; हमारे हक़ में दिसम्बर भी माह-ए-जून हुआ।