आज फिर दिल ने कहा... ​आज फिर दिल ने कहा आओ भुला दे यादें; जिंदगी बीत गई और वही यादे-यादें; जिस तरह आज ही बिछड़े हो बिछड़ने वाले; जेसे एक उम्र के दुःख याद दिला दे यादें; काश मुमकिन हो कि इक कागजी कश्ती की तरह; खुद फरामोशी के दरिया में बहा दे यादें; वो भी रुत आये कि ए-जुद-फरामोश मेरे; फूल पते तेरी यादों में बिछा दे यादें; भूल जाना भी तो इक तरह की नेअमत है फ़राज ; वरना इंसान को पागल न बना दे यादें।

​दिन सलीके से उगा... दिन सलीके से उगा रात ठिकाने से रही; दोस्ती अपनी भी कुछ रोज़ ज़माने से रही; चंद लम्हों को ही बनती हैं मुसव्विर आँखे; जिंदगी रोज़ तो तस्वीर बनाने से रही; इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी; रात जंगल में कोई शम्मा जलाने से रही; फ़ासला चाँद बना देता है हर पत्थर को; दूर की रौशनी नज़दीक तो आने से रही; शहर में सबको कहाँ मिलती है रोने की जगह; अपनी इज्ज़त भी यहाँ हंसने-हंसाने से रही।

जब भी चूम लेता हूँ... जब भी चूम लेता हूँ उन हसीन आँखों को; सौ चिराग अँधेरे में जगमगाने लगते हैं; फूल क्या शगूफे क्या चाँद क्या सितारे क्या; सब रकीब कदमों पर सर झुकाने लगते हैं; रक्स करने लगतीं हैं मूरतें अजंता की; मुद्दतों के लब-बस्ता ग़ार गाने लगते हैं; फूल खिलने लगते हैं उजड़े-उजड़े गुलशन में; प्यासी-प्यासी धरती पर अब्र छाने लगते हैं; लम्हें भर को ये दुनिया ज़ुल्म छोड़ देती है; लम्हें भर को सब पत्थर मुस्कुराने लगते हैं।

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है; तुम्ही कहो कि ये अंदाजे-गुफ्तगू क्या है; न शोले में ये करिश्मा न बर्क में ये अदा; कोई बताओ कि वो शोखे-तुंद-ख़ू क्या है; ये रश्क है कि वो होता है हमसुखन तुमसे; वरगना खौफे-बद-अमोजिए-अदू क्या है; चिपक रहा है बदन लहू से पैरहन; हमारी जेब को अब हाजते-रफू क्या है; जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा; कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है; बना है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता; वगरना शहर में ग़ालिब कि आबरू क्या है।

बेनाम सा यह दर्द बेनाम सा यह दर्द ठहर क्यों नही जाता; जो बीत गया है वो गुज़र क्यों नही जाता; सब कुछ तो है क्या ढूँढती रहती हैं निगाहें; क्या बात है मैं वक्त पे घर क्यूं नही जाता; वो एक ही चेहरा तो नही सारे जहाँ मैं; जो दूर है वो दिल से उतर क्यों नही जाता; मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा; जाते है जिधर सब मैं उधर क्यूं नही जाता; वो नाम जो बरसों से न चेहरा है न बदन है; वो ख्वाब अगर है तो बिखर क्यूं नही जाता; जो बीत गया है वो गुज़र क्यूं नही जाता; बेनाम सा यह दर्द ठहर क्यों नही जाता।

​​​हमारी ज़िन्दगी का​...​​​​हमारी ज़िन्दगी का इस तरह हर साल कटता है​;​कभी गाड़ी पलटती है कभी तिरपाल कटता है​;​​​​दिखाते हैं पड़ोसी मुल्क आँखें तो दिखाने दो​;​कहीं बच्चों के बोसे से भी माँ का गाल कटता है​;​इसी उलझन में अकसर रात आँखों में गुज़रती है​;​बरेली को बचाते हैं तो नैनीताल कटता है​;​​​​ कभी रातों के सन्नाटे में भी निकला करो घर से​;​ कभी देखा करो गाड़ी से कैसे माल कटता है​;​​​​ सियासी वार भी तलवार से कुछ कम नहीं होता​;​ कभी कश्मीर जाता है कभी बंगाल कटता है​।

आँखें जब चाहें जो चाहें बोलतीं हैं
लबों को ये इज़ाज़त कभी मिली ही नहीं

अभी सूरज नहीं डूबा ज़रा सी शाम होने दो; मैं खुद लौट जाऊँगा मुझे नाकाम होने दो; मुझे बदनाम करने का बहाना ढूँढ़ते हो क्यों; मैं खुद हो जाऊंगा बदनाम पहले नाम होने दो।

ख्याल में वो... ख्याल में वो बेसुरती में वो; आँखों में वो अक्स में वो; ख़ुशी में वो दर्द में वो; आब में वो शराब में वो; लाभ में वो बेहिसाब में वो; मेरे अब हो लो या जान मेरी लो।

ख़ुशी मुख पर... ख़ुशी मुख पर प्रवासी दिख रही है; हंसी में भी उदासी दिख रही है; हमारे घर में घुस आई कहाँ से; कुटिलता तो सियासी दिख रही है; उसे खाते हैं खुश हो कर करोंड़ों; जो रोटी तुमको बासी दिख रही है।

दर्द अपना हो दर्द अपना हो या पराया; सबमें बसा है तेरा साया; खुशियों का घर कहीं न देखा; मंदिर-मस्जिद तक हो आया; जबसे रूह की आहट पाई; हर कोई लगने लगा पराया; अब तक थे हम ठहरे पानी; तुमने हमको दरिया बनाया।

मुझे सोते हुए... मुझे सोते हुए जगाना मत कभी; मुझे गहरी नींद सोने की आदत है; मुझे भूल कर भी हँसाना मत कभी; हंसने के बाद मुझे रोने की आदत है; ज़िन्दगी में मेरी कभी आना मत ए दोस्त; क्योंकि मुझे खोने की आदत है।

मंजिल भी... मंजिल भी उसकी थी; रास्ता भी उसी का था; एक मैं अकेला था; काफिला भी उसका था; साथ चलने की सोच भी उसकी थी; रास्ता बदलने का फैसला भी उसका था; आज भी अकेला हूँ दिल सवाल करता है; लोग तो उसके ही थे क्या खुदा भी उसका था।

पत्नी बोली... क्यों जी दीपावली का सारा सामान आप लाये; पर पटाखा एक भी न लाये; मैंने कहा तुम किस पटाखे से कम हो; सच कहूँ तो समूचा डायनामाइट बम हो; अपनी गलती हमेशा मुझ पर जड़ती हो; सफाई में जब भी मैं कुछ कहूँ मुझ पर फट पड़ती हो।

मंजिल ... पहर दिन सप्ताह महीने साल; मत देखों मंजिल की चाह में; ये देखों कि कितना चले हो; और उसमें भी कितना भटके हो राह में; यदि यह भटकाव कुछ कम हो जाए; और तेजी ला दो चाल में; तो बहुत मुमकिन है कि कामयाबी; हांसिल हो जाए नए साल में।