बेखुदी ले गयी कहाँ... बेखुदी ले गयी कहाँ हम को; देर से इंतज़ार है अपना; रोते फिरते हैं सारी-सारी रात; अब यही रोज़गार है अपना; दे के दिल हम जो हो गए मजबूर; इस में क्या इख्तियार है अपना; कुछ नही हम मिसाले-अनका लेक; शहर-शहर इश्तिहार है अपना; जिस को तुम आसमान कहते हो; सो दिलों का गुबार है अपना।

न रवा कहिये न... न रवा कहिये न सज़ा कहिये; कहिये कहिये मुझे बुरा कहिये; दिल में रखने की बात है ग़म-ए-इश्क़; इस को हर्गिज़ न बर्मला कहिये; वो मुझे क़त्ल कर के कहते हैं; मानता ही न था ये क्या कहिये; आ गई आप को मसिहाई; मरने वालो को मर्हबा कहिये; होश उड़ने लगे रक़ीबों के; दाग को और बेवफ़ा कहिये।

मेरी आँखों में... मेरी आँखों में आँसू आए ना होते; अगर वो हमें देखकर मुस्कुराए ना होते; सोचता हूँ अक्सर तन्हाई में मैं; मेरी ज़िंदगी में काश वो आए ना होते; ना तड़पते हम उनके लिए इतना; दिल ने ख़्वाब अगर उनके सजाए ना होते; ना टूट कर बिखरता मैं इस कदर; अगर वो मेरे दिल में अपना घर बसाए ना होते।

सफ़ीना ग़र्क़ हुआ मेरा यूँ ख़ामोशी से; के सतह-ए-आब पे कोई हबाब तक न उठा; समझ न इज्ज़ इसे तेरे पर्दा-दार थे हम; हमारा हाथ जो तेरे नक़ाब तक न उठा; झिंझोड़ते रहे घबरा के वो मुझे लेकिन; मैं अपनी नींद से यौम-ए-हिसाब तक न उठा; जतन तो ख़ूब किए उस ने टालने के मगर; मैं उस की बज़्म से उस के जवाब तक न उठा।

बदन में आग... बदन में आग सी चेहरा गुलाब जैसा है; के ज़हरे-ग़म का नशा भी शराब जैसा है; कहाँ वो कुर्ब के अब तो ये हाल है जैसे; तेरे फिराक का आलम भी ख्वाब जैसा है; इसे कभी कोई देखे कोई पढे तो सही; दिल आइना है तो चेहरा किताब जैसा है; फ़राज़ संगे-मलामत से ज़ख्म-ज़ख्म सही; हमें अज़ीज़ है खानाखाराब जैसा है।

दर्द से मेरा दामन... दर्द से मेरा दामन भर दे या अल्लाह; फिर चाहे दीवाना कर दे या अल्लाह; मैनें तुझसे चाँद सितारे कब माँगे; रौशन दिल बेदार नज़र दे या अल्लाह; सूरज सी इक चीज़ तो हम सब देख चुके; सचमुच की अब कोई सहर दे या अल्लाह; या धरती के ज़ख़्मों पर मरहम रख दे; या मेरा दिल पत्थर कर दे या अल्लाह।

ज़रा-ज़रा सी रंजिशे... ज़रा-ज़रा सी रंजिशे; कभी दिल जला कभी जान भी; मैं अपनों के काबिल ना रहा; ये जानते है अन्जान भी; मेरे साथ अक्सर रहते है; कातिल मेरे मेहमान भी; धरती पर जुल्म देख कर; रूठा है आसमान भी; वो बदल गया खुदा सा जो; फ़रिस्ता था बना शैतान् भी; बस ज़रा-ज़रा सी रंजिशे; ना भुला सका इंसान भी।

मै यह नहीं कहता कि मेरा सर न मिलेगा; लेकिन मेरी आँखों में तुझे डर न मिलेगा; सर पर तो बिठाने को है तैयार जमाना; लेकिन तेरे रहने को यहाँ घर न मिलेगा; जाती है चली जाये ये मैखाने कि रौनक; कमज़र्फो के हाथो में तो सागर न मिलेगा; दुनिया की तलब है कनाअत ही न करना कतरे ही से खुश हो तो समन्दर न मिलेगा।

तेरे कमाल की हद तेरे कमाल की हद कब कोई बशर समझा; उसी क़दर उसे हैरत है जिस क़दर समझा; कभी न बन्दे-क़बा खोल कर किया आराम; ग़रीबख़ाने को तुमने न अपना घर समझा; पयामे-वस्ल का मज़मूँ बहुत है पेचीदा; कई तरह इसी मतलब को नामाबर समझा; न खुल सका तेरी बातों का एक से मतलब; मगर समझने को अपनी-सी हर बशर समझा।

तेरे कमाल की हद... तेरे कमाल की हद कब कोई बशर समझा; उसी क़दर उसे हैरत है जिस क़दर समझा; कभी न बन्दे-क़बा खोल कर किया आराम; ग़रीबख़ाने को तुमने न अपना घर समझा; पयामे-वस्ल का मज़मूँ बहुत है पेचीदा; कई तरह इसी मतलब को नामाबर समझा; न खुल सका तेरी बातों का एक से मतलब; मगर समझने को अपनी-सी हर बशर समझा।

ये ठीक है कि... ये ठीक है कि तेरी गली में न आयें हम; लेकिन ये क्या कि शहर तेरा छोड़ जाएँ हम; मुद्दत हुई है कूए बुताँ की तरफ़ गए; आवारगी से दिल को कहाँ तक बचाएँ हम; शायद बकैदे-जीस्त ये साअत न आ सके; तुम दास्ताने-शौक़ सुनो और सुनाएँ हम; उसके बगैर आज बहुत जी उदास है; जालिब चलो कहीं से उसे ढूँढ लायें हम।

मेरी ग़ज़ल की तरह... मेरी ग़ज़ल की तरह उसकी भी हुकूमत है; तमाम मुल्क में वो सबसे खूबसूरत है; कभी-कभी कोई इंसान ऐसा लगता है; पुराने शहर में जैसे नयी ईमारत है; बहुत दिनों से मेरे साथ थी मगर कल शाम; मुझे पता चला वो कितनी खूबसूरत है; ये ज़ाईरान-ए-अलीगढ़ का खास तोहफ़ा है; मेरी ग़ज़ल का तबर्रुक दिलों की बरकत है।

क्या कहिये किस तरह से... क्या कहिये किस तरह से जवानी गुज़र गई; बदनाम करने आई थी बदनाम कर गई; क्या क्या रही सहर को शब-ए-वस्ल की तलाश; कहता रहा अभी तो यहीं थी किधर गई; रहती है कब बहार-ए-जवानी तमाम उम्र; मानिन्दे-बू-ए-गुल इधर आयी उधर गई; नैरंग-ए-रोज़गार से बदला न रंग-ए-इश्क़; अपनी हमेशा एक तरह पर गुज़र गई।

झूठा निकला क़रार तेरा; अब किसको है ऐतबार तेरा; दिल में सौ लाख चुटकियाँ लीं; देखा बस हम ने प्यार तेरा; दम नाक में आ रहा था अपने; था रात ये इंतिज़ार तेरा; कर ज़बर जहाँ तलक़ तू चाहे; मेरा क्या इख्तियार तेरा; लिपटूँ हूँ गले से आप अपने; समझूँ कि है किनार तेरा; इंशा से मत रूठ खफा हो; है बंदा जानिसार तेरा।

झूठा निकला क़रार तेरा; अब किसको है ऐतबार तेरा; दिल में सौ लाख चुटकियाँ लीं; देखा बस हम ने प्यार तेरा; दम नाक में आ रहा था अपने; था रात ये इंतिज़ार तेरा; कर ज़बर जहाँ तलक़ तू चाहे; मेरा क्या इख्तियार तेरा; लिपटूँ हूँ गले से आप अपने; समझूँ कि है किनार तेरा; इंशा से मत रूठ खफा हो; है बंदा जानिसार तेरा।