जिन्दगी गुजर जाती है एक मकान बनाने में
और कुदरत उफ़ तक नहीं करती बस्तियाँ गिराने में
जिन्दगी गुजर जाती है एक मकान बनाने में
और कुदरत उफ़ तक नहीं करती बस्तियाँ गिराने में
ग़र तुम्हे अपना कहें तो तुम्हे कोई शिकवा तो नहीं
जमाना पूछता है बता तेरा अपना कौन है
मुहब्बत के ये आंसू है इन्हें आँखों में रहने दो
शरीफों के घरों का मसला बाहर नहीं जाता
उन्होने मुझसे पूछा चाहोगें मुझे कब तक
मैनें मुसकुरा कर कहा तुम बेवफा ना हो जाओ तब तक
उसके नर्म हाथों से फिसल जाती है चीज़ें अक्सर
मेरा दिल भी लगा है उनके हाथो खुदा खैर करे
हर "जुर्म" पे उठती हैं उँगलियाँ मेरी तरफ__
क्या "मेरे" सिवा शहर में "मासूम" हैं सारे।
इतने बुरे ना थे जो ठुकरा दिया तुमने हमेँ
तेरे अपने फैसले पर एक दिन तुझे भी अफसोस होगा
सिखा दिया दुनिया ने मुझे अपनों पे भी शक करना
मेरी फितरत में तो था गैरों पे भरोसा करना
हे ऊपर वाले हमें भी दिला दे कोई मिस कॉल मारने वाली
हमें इतना बैलेंस ऊपर लेके नहीं आना
प्यार की सौदागरी में हम दोनों बराबर रहे
उस ने कुछ खोया नहीं और मैंने कुछ पाया भी नहीं
इतना हक ना दे मुझे, हम मौका परस्त है,
जुल्फों को सुलझाते सुलझाते,लबों को चूम लिया करते
" जो तेरी चाह में गुज़री, वही ज़िन्दगी थी,
उस के बाद तो बस, ज़िन्दगी ने गुज़ारा है मुझे"
मौत के मारों को तो सैकड़ो कन्धे मिल जाएंगे
कौन चलता है यहाँ वक्त के मारों के साथ दिल से
मैं झुक गया तो वो सज़दा समझ बैठे
मैं तो इन्सानियत निभा रहा था वो खुद को ख़ुदा समझ बैठे
मेरे सारे जज्बात बस शायरी में सिमट के रह गए
तुझे मालूम ही नही हम तुझसे क्या क्या कह गए