थी जिसकी मौहब्बत में मौत भी मंजुर
आज उसकी नफरत ने जिना सिखा दिया
थी जिसकी मौहब्बत में मौत भी मंजुर
आज उसकी नफरत ने जिना सिखा दिया
खुद ही मुस्कुरा रहे हो साहिब
पागल हो या मोहब्बत की शुरूआत हुई है
मैंने अपनी मौत की अफवाह उड़ाई थी,
दुश्मन भी कह उठे आदमी अच्छा था...!!!
वो मंदिर भी जाता है और मस्जिद भी
परेशान पति का कोई मज़हब नहीं होता
अब उस नासमझ को समझाना छोड़ दिया
अब उसकी नासमझी से भी प्यार हो गया
कदमो को रुकने का हुनर नहीं आया
सभी मंजिले निकल गयी पर घर नहीं आया
इतना दर्द तो मरने से भी न होगा
जितना दर्द तेरी ख़ामोशी ने दिया था
ख़ज़ाने में थे सिर्फ़ दो आँसु मेरे
जब याद आयी आपकी तो वो भी लूट गए
चुइंगम की तरह चबाया करूं नाम तेरा
न हलक से उतरे न फेंकने का मन होय
काश मेरा घर तेरे घर के करीब होता
बात करना न सही देखना तो नसीब होता
मेरी हर बात को उल्टा समझ लेते है वो
अब के पूछे तो कहना हाल बेहतर है
ऐ दिल सोजा अब तेरी शायरी पढ़ने
वाली अब किसी और शायर की गजल बन गयी है
मैं अपने दुश्मन के भी गले लग जाऊँ
शर्त ये है वो तुझसे मिलकर आया हो
जल गया अपना नशेमन तो कोई बात नहीं
देखना ये है कि अब आग किधर लगती है
काश आंसुओ के साथ यादे भी बह जाती
तो एक दिन तस्सली से बैठ के रो लेते