आया हूँ संग ओ ख़िश्त के... आया हूँ संग ओ ख़िश्त के अम्बार देख कर; ख़ौफ़ आ रहा है साया-ए-दीवार देख कर; आँखें खुली रही हैं मेरी इंतज़ार में; आए न ख़्वाब दीद-ए-बे-दार देख कर; ग़म की दुकान खोल के बैठा हुआ था मैं; आँसू निकल पड़े हैं ख़रीददार देख कर; क्या इल्म था फिसलने लगेंगे मेरे क़दम; मैं तो चला था राह को हम-वार देख कर; हर कोई पार-साई की उम्दा मिसाल था; दिल ख़ुश हुआ है एक गुनह-गार देख कर।
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ये आरज़ू थी तुझे गुल के... ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते; हम और बुलबुल-ए-बेताब गुफ़्तगू करते; पयाम बर न मयस्सर हुआ तो ख़ूब हुआ; ज़बान-ए-ग़ैर से क्या शर की आरज़ू करते; मेरी तरह से माह-ओ-महर भी हैं आवारा; किसी हबीब को ये भी हैं जुस्तजू करते; जो देखते तेरी ज़ंजीर-ए-ज़ुल्फ़ का आलम; असीर होने के आज़ाद आरज़ू करते; न पूछ आलम-ए-बरगश्ता तालि-ए-आतिश; बरसती आग में जो बाराँ की आरज़ू करते।
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अपनी मर्ज़ी से कहाँ...अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम है;रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम है;पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है;अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम है;वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से;किसको मालूम कहाँ के हैं किधर के हम हैं;चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब;सोचते रहते हैं किस राहग़ुज़र के हम है।
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शायद अभी है राख में कोई... शायद अभी है राख में कोई शरार भी; क्यों इंतज़ार भी है इज़्तिरार भी; ध्यान आ गया है मर्ग-ए-दिल-ए-नामुराद का; मिलने को मिल गया है सुकूँ भी क़रार भी; अब ढूँढने चले हो मुसाफ़िर को दोस्तो; हद-ए-निगाह तक न रहा जब ग़ुबार भी; हर आस्ताँ पे नासियाफ़र्सा हैं आज वो; जो कल न कर सके थे तेरा इन्तज़ार भी; इक राह रुक गई तो ठिठक क्यों गई आद; आबाद बस्तियाँ हैं पहाड़ों के पार भी।
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एक-एक क़तरे का... एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब; ख़ून-ए-जिगर वदीअत-ए-मिज़गान-ए-यार था; अब मैं हूँ और मातम-ए-यक शहर-ए-आरज़ू; तोड़ा जो तू ने आईना तिम्सालदार था; गलियों में मेरी नाश को खेंचे फिरो कि मैं; जाँ दाद-ए-हवा-ए-सर-ए-रहगुज़ार था; मौज-ए-सराब-ए-दश्त-ए-वफ़ा का न पूछ हाल; हर ज़र्रा मिस्ले-जौहरे-तेग़ आबदार था; कम जानते थे हम भी ग़म-ए-इश्क़ को पर अब; देखा तो कम हुए पे ग़म-ए-रोज़गार था।
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यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब-ए-आरज़ू न मिला; किसी को हम न मिले और हम को तू न मिला; ग़ज़ाल-ए-अश्क सर-ए-सुब्ह दूब-ए-मिज़गाँ पर; कब आँख अपनी खुली और लहू लहू न मिला; चमकते चाँद भी थे शहर-ए-शब के ऐवाँ में; निगार-ए-ग़म सा मगर कोई शम्मा-रू न मिला; उन्ही की रम्ज़ चली है गली गली में यहाँ; जिन्हें उधर से कभी इज़्न-ए-गुफ़्तुगू न मिला; फिर आज मय-कदा-ए-दिल से लौट आए हैं; फिर आज हम को ठिकाने का हम-सबू न मिला।
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हस्ती अपनी...हस्ती अपनी हुबाब की सी है;ये नुमाइश सराब की सी है;नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए;हर एक पंखुड़ी गुलाब की सी है;चश्मे-दिल खोल इस भी आलम पर; याँ की औक़ात ख़्वाब की सी है;बार-बार उस के दर पे जाता हूँ;हालत अब इज्तेराब की सी है; मैं जो बोला कहा के ये आवाज़ ; उसी ख़ाना ख़राब की सी; मीर उन नीमबाज़ आँखों में; सारी मस्ती शराब की सी है।
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देखा तो था यूं ही... देखा तो था यूं ही किसी ग़फ़लत-शिआर ने; दीवाना कर दिया दिल-ए-बेइख़्तियार ने; ऐ आरज़ू के धुंधले ख्वाबों जवाब दो; फिर किसकी याद आई थी मुझको पुकारने; तुमको ख़बर नहीं मगर इक सादालौह को; बर्बाद कर दिया तेरे दो दिन के प्यार ने; मैं और तुमसे तर्क-ए-मोहब्बत की आरज़ू; दीवाना कर दिया है ग़म-ए-रोज़गार ने; अब ऐ दिल-ए-तबाह तेरा क्या ख्याल है; हम तो चले थे काकुल-ए-गेती सँवारने।
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उन्हें सवाल ही लगता है... उन्हें सवाल ही लगता है मेरा रोना भी; अजब सज़ा है जहाँ में ग़रीब होना भी; ये रात भी है ओढ़ना-बिछौना भी; इस एक रात में है जागना भी सोना भी; अजीब शहर है कि घर भी रास्तों की तरह; कैसा नसीब है रातों को छुप के रोना भी; खुले में सोएँगे मोतिया के फूलों से; सजा लो ज़ुल्फ़ बसा लो ज़रा बिछौना भी; अज़ीज़ कैसी यह सौदागरों की बस्ती है; गराँ है दिल से यहाँ काठ का खिलौना भी।
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वो तो ख़ुश्बू है... वो तो ख़ुश्बू है हवाओं में बिखर जायेगा; मसला फूल का है फूल किधर जायेगा; हम तो समझे थे के एक ज़ख़्म है भर जायेगा; क्या ख़बर थी के रग-ए-जाँ में उतर जायेगा; वो हवाओं की तरह ख़ानाबजाँ फिरता है; एक झोंका है जो आयेगा गुज़र जायेगा; वो जब आयेगा तो फिर उसकी रफ़ाक़त के लिये; मौसम-ए-गुल मेरे आँगन में ठहर जायेगा; आख़िरश वो भी कहीं रेत पे बैठी होगी; तेरा ये प्यार भी दरिया है उतर जायेगा।
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तेरी उम्मीद तेरा इंतज़ार... तेरी उम्मीद तेरा इंतज़ार जब से है; न शब को दिन से शिकायत न दिन को शब से है; किसी का दर्द हो करते हैं तेरे नाम रक़म; गिला है जो भी किसी से तेरी सबब से है; हुआ है जब से दिल-ए-नासबूर बेक़ाबू; कलाम तुझसे नज़र को बड़ी अदब से है; अगर शरर है तो भड़के जो फूल है तो खिले; तरह तरह की तलब तेरे रंग-ए-लब से है; कहाँ गये शब-ए-फ़ुरक़त के जागनेवाले; सितारा-ए-सहर हम-कलाम कब से है।
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या मुझे अफ़्सर-ए-शाहा... या मुझे अफ़्सर-ए-शाहा न बनाया होता; या मेरा ताज गदाया न बनाया होता; ख़ाकसारी के लिये गरचे बनाया था मुझे; काश ख़ाक-ए-दर-ए-जानाँ न बनाया होता; नशा-ए-इश्क़ का गर ज़र्फ़ दिया था मुझको; उम्र का तंग न पैमाना बनाया होता; अपना दीवाना बनाया मुझे होता तूने; क्यों ख़िरदमन्द बनाया न बनाया होता; शोला-ए-हुस्न चमन में न दिखाया उसने; वरना बुलबुल को भी परवाना बनाया होता।
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लहू न हो तो क़लम... लहू न हो तो क़लम तरजुमाँ नहीं होता; हमारे दौर में आँसू ज़ुबाँ नहीं होता; जहाँ रहेगा वहीं रौशनी लुटायेगा; किसी चिराग का अपना मकाँ नहीं होता; ये किस मक़ाम पे लाई है मेरी तनहाई; कि मुझ से आज कोई बदगुमाँ नहीं होता; मैं उस को भूल गया हूँ ये कौन मानेगा; किसी चिराग के बस में धुआँ नहीं होता; वसीम सदियों की आँखों से देखिये मुझ को; वो लफ़्ज़ हूँ जो कभी दास्ताँ नहीं होता।
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ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है; ऐसी तन्हाई के मर जाने को जी चाहता है; घर की वहशत से लरज़ता हूँ मगर जाने क्यों; शाम होती है तो घर जाने को जी चाहता है; डूब जाऊँ तो कोई मौज निशाँ तक न बताए; ऐसी नदी में उतर जाने को जी चाहता है; कभी मिल जाए तो रस्ते की थकन जाग पड़े; ऐसी मंज़िल से गुज़र जाने को जी चाहता है; वही पैमाँ जो कभी जी को ख़ुश आया था बहुत; उसी पैमाँ से मुकर जाने को जी चाहता है।
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तेरी उम्मीद तेरा इंतज़ार... तेरी उम्मीद तेरा इंतज़ार जब से है; न शब को दिन से शिकायत न दिन को शब से है; किसी का दर्द हो करते हैं तेरे नाम रक़म; गिला है जो भी किसी से तेरे सबब से है; हुआ है जब से दिल-ए-नासुबूर बेक़ाबू; कलाम तुझसे नज़र को बड़े अदब से है; अगर शरर है तो भड़के जो फूल है तो खिले; तरह तरह की तलब तेरे रंगे-लब से है; कहाँ गये शबे-फ़ुरक़त के जागनेवाले; सितारा-ए-सहरी हमकलाम कब से है।
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