जो मेरा दोस्त भी है... जो मेरा दोस्त भी है मेरा हमनवा भी है; वो शख्स सिर्फ भला ही नहीं बुरा भी है; मैं पूजता हूँ जिसे उससे बेनियाज़ भी हूँ; मेरी नज़र में वो पत्थर भी है खुदा भी है; सवाल नींद का होता तो कोई बात ना थी; हमारे सामने ख्वाबों का मसला भी है; जवाब दे ना सका और बन गया दुश्मन; सवाल था के तेरे घर में आईना भी है; ज़रूर वो मेरे बारे में राय दे लेकिन; ये पूछ लेना कभी मुझसे वो मिला भी है।
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कोई समझाए ये... कोई समझाए ये क्या रंग है मैख़ाने का; आँख साकी की उठे नाम हो पैमाने का; गर्मी-ए-शमा का अफ़साना सुनाने वालों; रक्स देखा नहीं तुमने अभी परवाने का; चश्म-ए-साकी मुझे हर गम पे याद आती है; रास्ता भूल न जाऊँ कहीं मैख़ाने का; अब तो हर शाम गुज़रती है उसी कूचे में; ये नतीजा हुआ ना से तेरे समझाने का; मंज़िल-ए-ग़म से गुज़रना तो है आसाँ इक़बाल ; इश्क है नाम ख़ुद अपने से गुज़र जाने का।
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मैं खुद भी सोचता हूँ... मैं खुद भी सोचता हूँ ये क्या मेरा हाल है; जिसका जवाब चाहिए वो क्या सवाल है; घर से चला तो दिल के सिवा पास कुछ न था; क्या मुझसे खो गया है मुझे क्या मलाल है; आसूदगी से दिल के सभी दाग धुल गए; लेकिन वो कैसे जाए जो शीशे में बल है; बे-दस्तो-पा हू आज तो इल्जाम किसको दूँ; कल मैंने ही बुना था ये मेरा ही जाल है; फिर कोई ख्वाब देखूं कोई आरजू करूँ; अब ऐ दिल-ए-तबाह तेरा क्या ख्याल है।
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आज भड़की रग-ए-वहशत तेरे दीवानों की; क़िस्मतें जागने वाली हैं बयाबानों की; फिर घटाओं में है नक़्क़ारा-ए-वहशत की सदा; टोलियाँ बंध के चलीं दश्त को दीवानों की; आज क्या सूझ रही है तेरे दीवानों को; धज्जियाँ ढूँढते फिरते हैं गरेबानों की; रूह-ए-मजनूँ अभी बेताब है सहराओं में; ख़ाक बे-वजह नहीं उड़ती बयाबानों की; उस ने एहसान कुछ इस नाज़ से मुड़ कर देखा; दिल में तस्वीर उतर आई परी-ख़ानों की।
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हर जनम में.... हर जनम में उसी की चाहत थे; हम किसी और की अमानत थे; उसकी आँखों में झिलमिलाती हुई; हम ग़ज़ल की कोई अलामत थे; तेरी चादर में तन समेट लिया; हम कहाँ के दराज़क़ामत थे; जैसे जंगल में आग लग जाये; हम कभी इतने ख़ूबसूरत थे; पास रहकर भी दूर-दूर रहे; हम नये दौर की मोहब्बत थे; इस ख़ुशी में मुझे ख़याल आया; ग़म के दिन कितने ख़ूबसूरत थे दिन में इन जुगनुओं से क्या लेना; ये दिये रात की ज़रूरत थे।
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हर जनम में.... हर जनम में उसी की चाहत थे; हम किसी और की अमानत थे; उसकी आँखों में झिलमिलाती हुई; हम ग़ज़ल की कोई अलामत थे; तेरी चादर में तन समेट लिया; हम कहाँ के दराज़क़ामत थे; जैसे जंगल में आग लग जाये; हम कभी इतने ख़ूबसूरत थे; पास रहकर भी दूर-दूर रहे; हम नये दौर की मोहब्बत थे; इस ख़ुशी में मुझे ख़याल आया; ग़म के दिन कितने ख़ूबसूरत थे दिन में इन जुगनुओं से क्या लेना; ये दिये रात की ज़रूरत थे।
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जीते-जी कूचा-ए-दिलदार से... जीते-जी कूचा-ए-दिलदार से जाया न गया; उसकी दीवार का सर से मेरे साया न गया; गुल में उसकी सी जो बू आई तो आया न गया; हमको बिन दोश-ए-सबा बाग से लाया न गया; दिल में रह दिल में कि मे मीर-ए-कज़ा से अब तक; ऐसा मतबूअ मकां कोई बनाया न गया; क्या तुनुक हौसला थे दीदा-ओ-दिल अपने आह; एक दम राज़ मोहब्बत का छुपाया न गया; शहर-ए-दिल आह अजब जगह थी पर उसके गए; ऐसा उजड़ा कि किसी तरह बसाया ना गया।
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इश्क़ को तक़लीद से... इश्क़ को तक़लीद से आज़ाद कर; दिल से गिरया आँख से फ़रियाद कर; बाज़ आ ऐ बंदा-ए-हुस्न मिज़ाज़; यूँ न अपनी ज़िंदगी बर्बाद कर; ऐ ख़यालों के मकीं नज़रों से दूर; मेरी वीराँ ख़ल्वतें आबाद कर; हुस्न को दुनिया की आँखों से न देख; अपनी इक तर्ज़-ए-नज़र ईजाद कर; इशरत-ए-दुनिया है इक ख़्वाब-ए-बहार; काबा-ए-दिल दर्द से आबाद कर; अब कहाँ एहसान दुनिया में वफ़ा; तौबा कर नादाँ ख़ुदा को याद कर।
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आफत की शोख़ियां हैं... आफत की शोख़ियां हैं तुम्हारी निगाह में; मेहशर के फितने खेलते हैं जल्वा-गाह में; वो दुश्मनी से देखते हैं देखते तो हैं; मैं शाद हूँ कि हूँ तो किसी कि निगाह में; आती है बात बात मुझे याद बार बार; कहता हूं दौड़ दौड़ के कासिद से राह में; इस तौबा पर है नाज़ मुझे ज़ाहिद इस कदर; जो टूट कर शरीक हूँ हाल-ए-तबाह में; मुश्ताक इस अदा के बहुत दर्दमंद थे; ऐ दाग़ तुम तो बैठ गये एक आह में।
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होशियारी दिल-ए-नादान... होशियारी दिल-ए-नादान बहुत करता है; रंज कम सहता है एलान बहुत करता है; रात को जीत तो पाता नहीं लेकिन ये चिराग; कम से कम रात का नुकसान बहुत करता है; आज कल अपना सफर तय नहीं करता कोई; हाँ सफर का सर-ओ-सामान बहुत करता है; अब ज़ुबान खंज़र-ए-कातिल की सना करती है; हम वो ही करते है जो खल्त-ए-खुदा करती है; हूँ का आलम है गिराफ्तारों की आबादी में; हम तो सुनते थे की ज़ंज़ीर सदा करती है।
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कोई समझाए ये क्या... कोई समझाए ये क्या रंग है मैख़ाने का; आँख साकी की उठे नाम हो पैमाने का; गर्मी-ए-शमा का अफ़साना सुनाने वालों; रक्स देखा नहीं तुमने अभी परवाने का; चश्म-ए-साकी मुझे हर गाम पे याद आती है; रास्ता भूल न जाऊँ कहीं मैख़ाने का; अब तो हर शाम गुज़रती है उसी कूचे मे; ये नतीजा हुआ ना से तेरे समझाने का; मंज़िल-ए-ग़म से गुज़रना तो है आसाँ इक़बाल ; इश्क है नाम ख़ुद अपने से गुज़र जाने का।
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आफत की शोख़ियां हैं... आफत की शोख़ियां हैं तुम्हारी निगाह में; मेहशर के फितने खेलते हैं जल्वा-ए-गाह में; वो दुश्मनी से देखते हैं देखते तो हैं; मैं शाद हूँ कि हूँ तो किसी की निगाह में; आती है बात बात मुझे याद बार बार; कहता हूँ दौड़ दौड़ के कासिद से राह में; इस तौबा पर है नाज़ मुझे ज़ाहिद इस कदर; जो टूट कर शरीक हूँ हाल-ए-तबाह में; मुश्ताक इस अदा के बहुत दर्दमंद थे; ऐ दाग़ तुम तो बैठ गये एक आह में।
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देखना भी तो उन्हें दूर से देखा करना; शेवा-ए-इश्क़ नहीं हुस्न को रुसवा करना; एक नज़र ही तेरी काफ़ी थी कि आई राहत-ए-जान; कुछ भी दुश्वार न था मुझ को शकेबा करना; उन को यहाँ वादे पे आ लेने दे ऐ अब्र-ए-बहार; जिस तरह चाहना फिर बाद में बरसा करना; शाम हो या कि सहर याद उन्हीं की रख ले; दिन हो या रात हमें ज़िक्र उन्हीं का करना; कुछ समझ में नहीं आता कि ये क्या है हसरत ; उन से मिलकर भी न इज़हार-ए-तमन्ना करना।
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हर चीज़ ज़माने की जहाँ पर थी वहीं है एक तू ही नहीं है; नज़रें भी वही और नज़ारे भी वही हैं ख़ामोश फ़ज़ाओं के इशारे भी वही हैं कहने को तो सब कुछ है मगर कुछ भी नहीं है; हर अश्क में खोई हुई ख़ुशियों की झलक है हर साँस में बीती हुई घड़ियों की कसक है तू चाहे कहीं भी हो तेरा दर्द यहीं है; हसरत नहीं अरमान नहीं आस नहीं है यादों के सिवा कुछ भी मेरे पास नहीं है यादें भी रहें या न रहें किसको यक़ीं है।
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फिर इस अंदाज़ से... फिर इस अंदाज़ से बहार आई; के हुये मेहर-ओ-माह तमाशाई; देखो ऐ सकिनान-ए-खित्ता-ए-ख़ाक; इस को कहते हैं आलम-आराई; के ज़मीं हो गई है सर ता सर; रूकश-ए-सतहे चर्ख़े मिनाई; सब्ज़े को जब कहीं जगह न मिली; बन गया रू-ए-आब पर काई; सब्ज़-ओ-गुल के देखने के लिये; चश्म-ए-नर्गिस को दी है बिनाई; है हवा में शराब की तासीर; बदानोशी है बाद पैमाई; क्यूँ न दुनिया को हो ख़ुशी ग़ालिब ; शाह-ए-दीदार ने शिफ़ा पाई।
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