आँखों से मेरे इस लिए लाली नहीं जाती; यादों से कोई रात खा़ली नहीं जाती; अब उम्र ना मौसम ना रास्‍ते के वो पत्‍ते; इस दिल की मगर ख़ाम ख्‍़याली नहीं जाती; माँगे तू अगर जान भी तो हँस कर तुझे दे दूँ; तेरी तो कोई बात भी टाली नहीं जाती; मालूम हमें भी हैं बहुत से तेरे क़िस्से; पर बात तेरी हमसे उछाली नहीं जाती; हमराह तेरे फूल खिलाती थी जो दिल में; अब शाम वहीं दर्द से ख़ाली नहीं जाती; हम जान से जाएंगे तभी बात बनेगी; तुमसे तो कोई बात निकाली नहीं जाती।

अच्छा जो ख़फ़ा हम से हो तुम ऐ सनम अच्छा; लो हम भी न बोलेंगे ख़ुदा की क़सम अच्छा; मश्ग़ूल क्या चाहिए इस दिल को किसी तौर; ले लेंगे ढूँढ और कोई यार हम अच्छा; गर्मी ने कुछ आग और ही सीने में लगा दी; हर तौर घरज़ आप से मिलना है कम अच्छा; अग़ियार से करते हो मेरे सामने बातें; मुझ पर ये लगे करने नया तुम सितम अच्छा; कह कर गए आता हूँ कोई दम में मैं तुम पास; फिर दे चले कल की सी तरह मुझको दम अच्छा; इस हस्ती-ए-मौहूम से मैं तंग हूँ इंशा ; वल्लाह के उस से दम अच्छा।

सोज़ में भी वही इक नग़्मा है... सोज़ में भी वही इक नग़्मा है जो साज़ में है; फ़र्क़ नज़दीक़ की और दूर की आवाज़ में है; ये सबब है कि तड़प सीना-ए-हर-साज़ में है; मेरी आवाज़ भी शामिल तेरी आवाज़ में है; जो न सूरत में न म आनी में न आवाज़ में है; दिल की हस्ती भी उसी सिलसिला-ए-राज़ में है; आशिकों के दिले-मजरूह से कोई पूछे; वो जो इक लुत्फ़ निगाहे-ग़लत -अंदाज़ में है; गोशे-मुश्ताक़ की क्या बात है अल्लाह-अल्लाह; सुन रहा हूँ मैं जो नग़्मा जो अभी साज़ में है।

हर एक लम्हे की रग में दर्द का रिश्ता धड़कता है; वहाँ तारा लरज़ता है जो याँ पत्ता खड़कता है; ढके रहते हैं गहरे अब्र में बातिन के सब मंज़र; कभी एक लहज़ा-ए-इदराक बिजली सा कड़कता है; मुझे दीवाना कर देती है अपनी मौत की शोख़ी; कोई मुझ में रग-ए-इज़हार की सूरत फड़कता है; फिर एक दिन आग लग जाती है जंगल में हक़ीक़त के; कहीं पहले-पहल एक ख़्वाब का शोला भड़कता है; मेरी नज़रें ही मेरे अक्स को मजरूह करती हैं; निगाहें मुर्तकिज़ होती हैं और शीशा तड़कता है।

हर एक रूह में एक ग़म छुपा लगे हैं मुझे; ये ज़िन्दगी तो कोई बद-दुआ लगे है मुझे; जो आँसू में कभी रात भीग जाती है; बहुत क़रीब वो आवाज़-ए-पा लगे है मुझे; मैं सो भी जाऊँ तो मेरी बंद आँखों में; तमाम रात कोई झाँकता लगे है मुझे; मैं जब भी उस के ख़यालों में खो सा जाता हूँ; वो ख़ुद भी बात करे तो बुरा लगे है मुझे; मैं सोचता था कि लौटूँगा अजनबी की तरह; ये मेरा गाँव तो पहचाना सा लगे है मुझे; बिखर गया है कुछ इस तरह आदमी का वजूद; हर एक फ़र्द कोई सानेहा लगे है मुझे।

दुश्मन भी पेश... दुश्मन भी पेश आए हैं दिलदार की तरह; नफरत मिली है उनसे मुझे प्यार की तरह; कैसे मिलेंगे चाहने वाले बताईये; दुनिया खड़ी है राह में दीवार की तरह; वो बेवफ़ाई करके भी शर्मिंदा ना हुए; सूली पे हम चढ़े हैं गुनहगार की तरह; तूफ़ान में मुझ को छोड़ कर वो लोग चल दिए; साहिल पर थे जो साथ में पतवार की तरह; चेहरे पर हादसों ने लिखीं वो इबारतें; पढ़ने लगा हर कोई मुझे अख़बार की तरह; दुश्मन भी हो गए हैं मसीहा सिफ़त जमाल; मिलते हैं टूट कर वो गले यार की तरह।

सोचा नहीं अच्छा बुरा... सोचा नहीं अच्छा बुरा देखा सुना कुछ भी नहीं; माँगा ख़ुदा से हर वक़्त तेरे सिवा कुछ भी नहीं; देखा तुझे चाहा तुझे सोचा तुझे पूजा तुझे; मेरी वफ़ा मेरी खता तेरी खता कुछ भी नहीं; जिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाये रात भर; भेजा वही कागज़ उसे हम ने लिखा कुछ भी नहीं; और एक शाम की दहलीज़ पर बैठे रहे वो देर तक; आँखों से भी बातें बहुत मुँह से कहा कुछ भी नहीं; दो-चार दिन की बात है दिल ख़ाक में मिल जायेगा; आग पर जब कागज़ रखा बाकी बचा कुछ भी नहीं।

लौट के उसी दो राहे पर.... लौट के उसी दो राहे पर बार-बार पहुँचा; मैं कहीं भी पहुंचा बस बेकार पहुंचा; सारी रात गुज़ार दी चंद लफ़्ज़ों के साथ; मेरे सवाल से पहले उनका इनकार पहुँचा; मैं कहीं भी... रूह की गहराईयों में राह तकती आंखें; जहाँ तू नहीं पहुँचा वहाँ इंतज़ार पहुँचा; मैं कहीं भी... होश न आया फिर होश जाने के बाद; मैं गया किधर भी मगर कूचा ए यार पहुँचा; मैं कहीं भी... डूब के जाना है ये तो मालूम था वीर ; नज़र नहीं आता जहाँ कोई मैं उस पार पहुँचा; मैं कहीं भी...

तू भी तो एक लफ़्ज़ है इक दिन मिरे बयाँ में आ; मेरे यक़ीं में गश्त कर मेरी हद-ए-गुमाँ में आ; नींदों में दौड़ता हुआ तेरी तरफ़ निकल गया; तू भी तो एक दिन कभी मेरे हिसार-ए-जाँ में आ; इक शब हमारे साथ भी ख़ंजर की नोक पर कभी; लर्ज़ीदा चश्म-ए-नम में चल जलते हुए मकाँ में आ; नर्ग़े में दोस्तों के तू कब तक रहेगा सुर्ख़-रू; नेज़ा-ब-नेज़ा दू-ब-दू-सफ़्हा-ए-दुश्मनान में आ; इक रोज़ फ़िक्र-ए-आब-ओ-नाँ तुझ को भी हो जान-ए-जहाँ; क़ौस-ए-अबद को तोड़ कर इस अर्सा-ए-ज़ियाँ में आ।

कितने ऐश उड़ाते होंगे कितने इतराते होंगे; जाने कैसे लोग वो होंगे जो उस को भाते होंगे; उस की याद की बाद-ए-सबा में और तो क्या होता होगा; यूँ ही मेरे बाल हैं बिखरे और बिखर जाते होंगे; बंद रहे जिन का दरवाज़ा ऐसे घरों की मत पूछो; दीवारें गिर जाती होंगी आँगन रह जाते होंगे; मेरी साँस उखड़ते ही सब बैन करेंगे रोएंगे; यानी मेरे बाद भी यानी साँस लिये जाते होंगे; यारो कुछ तो बात बताओ उस की क़यामत बाहों की; वो जो सिमटते होंगे इन में वो तो मर जाते होंगे।

ऐसे कुछ अहसास होते है.... ऐसे कुछ अहसास होते हैं हर इंसान के जीवन में; भले मुद्दत गुजर जाये वो दिल के पास होते है; जो दिल की बात सुनता है वही दिलदार है यारों; दौलत बन अक्सर तो असल में दास होते हैं; अपनापन लगे जिससे वही तो यार अपना है; आजकल तो स्वार्थ सिद्धि में रिश्ते नाश होते हैं; धर्म अब आज रुपया है कर्म अब आज रुपया है; जीवन के खजानें अब क्यों सत्यानाश होते हैं; समय रहते अगर चेते तभी तो बात बनती है; वरना नरक है जीवन पीढ़ियों में त्रास होते हैं।

अज़ाब ये भी किसी... अज़ाब ये भी किसी और पर नहीं आया; कि एक उम्र चले और घर नहीं आया; इस एक ख़्वाब की हसरत में जल बुझीं आँखें; वो एक ख़्वाब कि अब तक नज़र नहीं आया; करें तो किस से करें ना-रसाइयों का गिला; सफ़र तमाम हुआ हम-सफ़र नहीं आया; दिलों की बात बदन की ज़बाँ से कह देते; ये चाहते थे मगर दिल इधर नहीं आया; अजीब ही था मेरे दौर-ए-गुमरही का रफ़ीक़; बिछड़ गया तो कभी लौट कर नहीं आया; हरीम-ए-लफ़्ज़-ओ-मआनी से निस्बतें भी रहीं; मगर सलीक़ा-ए-अर्ज़-ए-हुनर नहीं आया।

​कल रोक नहीं पाए​...​कल रोक नहीं पाए जिसे तीरों-तबर भी​;​​ अब उसको थका देती है इक राहगुज़र भी​;​​​​​​​​इस डर से कभी गौर से देखा नहीं तुझको​;​​​कहते हैं कि लग जाती है अपनों की नज़र भी​;​​​​​​​​कुछ मेरी अना भी मुझे झुकने नहीं देती​;​​​कुछ इसकी इजाज़त नहीं देती है कमर भी​;​​​​​​​​तुम सूखी हुई शाखों का अफ़सोस न करना​;​​​आँधी तो गिरा देती है मजबूत शजर भी​;​​​​​​​​वो मुझसे वहाँ कीमते-जाँ पूछ रहा है​;​​​ महफूज़ नहीं है जहाँ अल्लाह का घर भी​।

ज़ंजीर से उठती है सदा सहमी हुई सी; जारी है अभी गर्दिश-ए-पा सहमी हुई सी; दिल टूट तो जाता है पे गिर्या नहीं करता; क्या डर है के रहती है वफ़ा सहमी हुई सी; उठ जाए नज़र भूल के गर जानिब-ए-अफ़्लाक; होंटों से निकलती है दुआ सहमी हुई सी; हाँ हँस लो रफ़ीक़ो कभी देखी नहीं तुम ने; नम-नाक निगाहों में हया सहमी हुई सी; तक़सीर कोई हो तो सज़ा उम्र का रोना; मिट जाएँ वफ़ा में तो जज़ा सहमी हुई सी; है अर्श वहाँ आज मुहीत एक ख़ामोशी; जिस राह से गुज़री थी क़ज़ा सहमी हुई सी।

अपने पहाड़ ग़ैर के....अपने पहाड़ ग़ैर के गुलज़ार हो गये;वे भी हमारी राह की दीवार हो गये;फल पक चुका है शाख़ पर गर्मी की धूप में;हम अपने दिल की आग में तैयार हो गये;हम पहले नर्म पत्तों की इक शाख़ थे मगर;काटे गये हैं इतने कि तलवार हो गये;बाज़ार में बिकी हुई चीजों की माँग है;हम इस लिये ख़ुद अपने ख़रीदार हो गये;ताजा लहू भरा था सुनहरे गुलाब में;इन्कार करने वाले गुनहगार हो गये;वो सरकशों के पाँव की ज़ंजीर थे कभी; अब बुज़दिलों के हाथ में तलवार हो गये।