सहमा-सहमा हर इक चेहरा सहमा-सहमा हर इक चेहरा मंज़र-मंज़र ख़ून में तर; शहर से जंगल ही अच्छा है चल चिड़िया तू अपने घर; तुम तो ख़त में लिख देती हो घर में जी घबराता है; तुम क्या जानो क्या होता है हाल हमारा सरहद पर; बेमौसम ही छा जाते हैं बादल तेरी यादों के; बेमौसम ही हो जाती है बारिश दिल की धरती पर; आ भी जा अब जाने वाले कुछ इनको भी चैन पड़े; कब से तेरा रस्ता देखें छत आंगन दीवार-ओ-दर; जिस की बातें अम्मा-अब्बू अक़्सर करते रहते हैं; सरहद पार न जाने कैसा वो होगा पुरखों का घर।

कहाँ क़ातिल बदलते हैं... कहाँ क़ातिल बदलते हैं फ़क़त चेहरे बदलते हैं; अजब अपना सफ़र है फ़ासले भी साथ चलते हैं; बहुत कमजर्फ़ था जो महफ़िलों को कर गया वीराँ; न पूछो हाले चाराँ शाम को जब साए ढलते हैं; वो जिसकी रोशनी कच्चे घरों तक भी पहुँचती है; न वो सूरज निकलता है न अपने दिन बदलते हैं; कहाँ तक दोस्तों की बेदिली का हम करें मातम; चलो इस बार भी हम ही सरे मक़तल निकलते हैं; हम अहले दर्द ने ये राज़ आखिर पा लिया जालिब ; कि दीप ऊँचे मकानों में हमारे खून से जलते हैं।

न मिलने का वादा न मिलने का वादा न आने की बातें; कहाँ तक सुनें दिल जलाने की बातें; हमेशा वही सर झुकाने की बातें; कभी तो करो सर उठाने की बातें; कोई इस ज़माने की कहता नहीं है; सुनाते हो अपने ज़माने की बातें; कहाँ तक सुने कोई इन रहबरों की; हथेली पे सरसों उगाने की बातें; तरस खायेंगी बिजलियाँ भी यक़ीनन; जो सुन लें कभी आशियाने की बातें; अजब-सी लगे हैं फ़क़ीरों के मुँह से; किसी हूर की या ख़ज़ाने की बातें; कभी जो हुईं थीं हमारी-तुम्हारी; वो बातें नहीं हैं बताने की बातें।

कहाँ क़ातिल बदलते हैं... कहाँ क़ातिल बदलते हैं फ़क़त चेहरे बदलते हैं; अजब अपना सफ़र है फ़ासले भी साथ चलते हैं; बहुत कमजर्फ़ था जो महफ़िलों को कर गया वीराँ; न पूछो हाले चाराँ शाम को जब साए ढलते हैं; वो जिसकी रोशनी कच्चे घरों तक भी पहुँचती है; न वो सूरज निकलता है न अपने दिन बदलते हैं; कहाँ तक दोस्तों की बेदिली का हम करें मातम; चलो इस बार भी हम ही सरे मक़तल निकलते हैं; हम अहले दर्द ने ये राज़ आखिर पा लिया जालिब ; कि दीप ऊँचे मकानों में हमारे खून से जलते हैं।

हुई है शाम तो आँखों में बस गया फिर तू; कहाँ गया है मेरे शहर के मुसाफ़िर तू; बहुत उदास है इक शख़्स तेरे जाने से; जो हो सके तो चला आ उसी की ख़ातिर तू; मेरी मिसाल कि इक नख़्ल-ए-ख़ुश्क-ए-सहरा हूँ; तेरा ख़याल कि शाख़-ए-चमन का ताइर तू; मैं जानता हूँ के दुनिया तुझे बदल देगी; मैं मानता हूँ के ऐसा नहीं बज़ाहिर तू; हँसी ख़ुशी से बिछड़ जा अगर बिछड़ना है; ये हर मक़ाम पे क्या सोचता है आख़िर तू; फ़राज़ तूने उसे मुश्किलों में डाल दिया; ज़माना साहिब-ए-ज़र और सिर्फ़ शायर तू।

वफ़ा के भेस में... वफ़ा के भेस में कोई रक़ीब-ए-शहर भी है; हज़र! के शहर के क़ातिल तबीब-ए-शहर भी है; वही सिपाह-ए-सितम ख़ेमाज़न है चारों तरफ़; जो मेरे बख़्त में था अब नसीब-ए-शहर भी है; उधर की आग इधर भी पहुँच न जाये कहीं; हवा भी तेज़ है जंगल क़रीब-ए-शहर भी है; अब उसके हिज्र में रोते हैं उस के घायल भी; ख़बर न थी के वो ज़ालिम हबीब-ए-शहर भी है; ये राज़ नारा-ए-मन्सूर ही से हम पे ख़ुला; के चूब-ए-मिम्बर-ए-मस्जिद सलीब-ए-शहर भी है; कड़ी है जंग के अब के मुक़ाबिले पे फ़राज़ ; अमीर-ए-शहर भी है और खतीब-ए-शहर भी है।

समुंदर में उतरता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं; तिरी आँखों को पढ़ता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं; तुम्हारा नाम लिखने की इजाज़त छिन गई जब से; कोई भी लफ़्ज़ लिखता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं; तिरी यादों की ख़ुशबू खिड़कियों में रक़्स करती है; तिरे ग़म में सुलगता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं; न जाने हो गया हूँ इस क़दर हस्सास मैं कब से; किसी से बात करता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं; हज़ारों मौसमों की हुक्मरानी है मिरे दिल पर; वसी मैं जब भी हँसता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं।

अंदर का ज़हर चूम लिया​...​​अंदर का ज़हर चूम लिया धुल के आए गए;​कितने शरीफ लोग थे सब खुल के आ गये;​​सूरज से जंग जीतने निकले थे बेवकूफ;सारे सिपाही मोम के थे घुल के आ गये;​​मस्जिद में कोइ दूर-दूर दूसरा ना था;​हम आज अपने आप में मिल-जुल के आ गये;​​नींदों से जंग होती रहेगी तमाम उम्र;​आँखों में बंद ख्वाब अगर खुल के आ गये;​​​सूरज ने अपनी शक्ल भी देखी थी पहली बार;​आईने को मज़े भी तक़ाबुल के आ गये;​​​​अनजाने साए फिरने लगे है इधर-उधर;​मौसम हमारे शहर में काबुल के आ गए।

बुलंदी देर तक... बुलंदी देर तक किस शख़्स के हिस्से में रहती है; बहुत ऊँची इमारत हर घड़ी ख़तरे में रहती है; बहुत जी चाहता है क़ैद-ए-जाँ से हम निकल जाएँ; तुम्हारी याद भी लेकिन इसी मलबे में रहती है; यह ऐसा क़र्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता; मैं जब तक घर न लौटूँ मेरी माँ सजदे में रहती है; मोहब्बत में परखने जाँचने से फ़ायदा क्या है; कमी थोड़ी-बहुत हर एक के शजरे में रहती है; ये अपने आप को तक़्सीम कर लेता है सूबों में; ख़राबी बस यही हर मुल्क के नक़्शे में रहती है।

फ़ुरसत-ए-कार फ़क़त... फ़ुरसत-ए-कार फ़क़त चार घड़ी है यारो; ये न सोचो के अभी उम्र पड़ी है यारो; अपने तारीक मकानों से तो बाहर झाँको; ज़िन्दगी शमा लिए दर पे खड़ी है यारो; उनके बिन जी के दिखा देंगे चलो यूँ ही सही; बात इतनी सी है कि ज़िद आन पड़ी है यारो; फ़ासला चंद क़दम का है मना लें चल कर; सुबह आई है मगर दूर खड़ी है यारो; किस की दहलीज़ पे ले जाके सजाऊँ इस को; बीच रस्ते में कोई लाश पड़ी है यारो; जब भी चाहेंगे ज़माने को बदल डालेंगे; सिर्फ़ कहने के लिये बात बड़ी है यारो।

इश्क़ करो तो ये भी सोचो... इश्क़ करो तो ये भी सोचो अर्ज़-ए-सवाल से पहले; हिज्र की पूरी रात आती है सुब्ह-ए-विसाल से पहले; दिल का क्या है दिल ने कितने मंज़र देखे लेकिन; आँखें पागल हो जाती है एक ख़याल से पहले; किस ने रेत उड़ाई शब में आँखें खोल के रखी; कोई मिसाल तो होना उस की मिसाल से पहले; कार-ए-मोहब्बत एक सफ़र है इस में आ जाता है; एक ज़वाल-आसार सा रस्ता बाब-ए-कमाल से पहले; इश्क़ में रेशम जैसे वादों और ख़्वाबों का रस्ता; जितना मुमकिन हो तय कर लें गर्द-ए-मलाल से पहले।

मोहब्बत करने वालों के बहार-अफ़रोज़ सीनों में; रहा करती है शादाबी ख़ज़ाँ के भी महीनों में; ज़िया-ए-महर आँखों में है तौबा मह-जबीनों में; के फ़ितरत ने भरा है हुस्न ख़ुद अपना हसीनों में; हवा-ए-तुंद है गर्दाब है पुर-शोर धारा है; लिए जाते हैं ज़ौक-ए-आफ़ियत सी शय सफीनों में; मैं उन में हूँ जो हो कर आस्ताँ-ए-दोस्त से महरूम; लिए फिरते हैं सजदों की तड़प अपनी जबीनों में; मेरी ग़ज़लें पढ़ें सब अहल-ए-दिल और मस्त हो जाएँ; मय-ए-जज़्बात लाया हूँ मैं लफ़्ज़ी आब-गीनों में।

ज़रूरी काम है लेकिन... ज़रूरी काम है लेकिन रोज़ाना भूल जाता हूँ; मुझे तुम से मोहब्बत है जताना भूल जाता हूँ; तेरी गलियों में फिरना इतना अच्छा लगता है; मैं रास्ता याद रखता हूँ ठिकाना भूल जाता हूँ; बस इतनी बात पर मैं लोगों को अच्छा नही लगता; मैं काम तो कर तो देता हूँ पर बताना भूल जाता हूँ; शरारत ले के आंखो में वो तेरा देखना तौबा; मैं तेरी नज़रो पे जमी नज़रे झुकाना भूल जाता हूँ; मोहब्बत कब हुई कैसे हुई सब याद है मुझको; मैं कर के मोहब्बत को भुलाना भूल जाता हूँ।

अब किसी से बात करना बोलना... अब किसी से बात करना बोलना अच्छा नहीं लगता; तुझे देखा है जब से दूसरा अच्छा नहीं लगता; तेरी आँखों में जब से मैंने अपना अक्स देखा है; मेरे चेहरे को कोई आइना अच्छा नहीं लगता; यहाँ अहले मोहब्बत उम्र भर बर्बाद रहते हैं; ये दरिया है इसे कच्चा घड़ा अच्छा नहीं लगता; तेरे बारे में दिन भर सोचती ​रहते है लेकिन; तेरे बारे में सबसे पूछना अच्छा लगता है; मैं अब चाहत ​की उस मंज़िल ​पे आ ​पहुंचा हूँ; ​जहाँ तेरी तरफ किसी का देखना अच्छा नहीं लगता।

समझ रहे हैं मगर बोलने का यारा नहीं; जो हम से मिल के बिछड़ जाए वो हमारा नहीं; अभी से बर्फ़ उलझने लगी है बालों से; अभी तो क़र्ज़-ए-मह-ओ-साल भी उतारा नहीं; बस एक शाम उसे आवाज़ दी थी हिज्र की शाम; फिर उस के बाद उसे उम्र भर पुकारा नहीं; समंदरों को भी हैरत हुई के डूबते वक़्त; किसी को हम ने मदद के लिए पुकारा नहीं; वो हम नहीं थे तो फिर कौन था सर-ए-बाज़ार; जो कह रहा था के बिकना हमें गवारा नहीं; हम अहल-ए-दिल हैं मोहब्बत की निस्बतों के अमीन; हमारे पास ज़मीनों का गोशवारा नहीं।