देख दिल को मेरे ओ काफ़िर-ए-बे-पीर न तोड़; घर है अल्लाह का ये इस की तो तामीर न तोड़; ग़ुल सदा वादी-ए-वहशत में रखूँगा बरपा; ऐ जुनूँ देख मेरे पाँव की ज़ंजीर न तोड़; देख टुक ग़ौर से आईना-ए-दिल को मेरे; इस में आता है नज़र आलम-ए-तस्वीर न तोड़; ताज-ए-ज़र के लिए क्यूँ शमा का सर काटे है; रिश्ता-ए-उल्फ़त-ए-परवाना को गुल-गीर न तोड़; अपने बिस्मिल से ये कहता था दम-ए-नज़ा वो शोख़; था जो कुछ अहद सो ओ आशिक़-ए-दिल-गीर न तोड़; सहम कर ऐ ज़फ़र उस शोख़ कमाँ-दार से कह; खींच कर देख मेरे सीने से तू तीर न तोड़।

ख़ातिर से तेरी याद को टलने नहीं देते; सच है कि हम ही दिल को संभलने नहीं देते; आँखें मुझे तलवों से वो मलने नहीं देते; अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते; किस नाज़ से कहते हैं वो झुंझला के शब-ए-वस्ल; तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते; परवानों ने फ़ानूस को देखा तो ये बोले; क्यों हम को जलाते हो कि जलने नहीं देते; हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्ज़-ए-तमन्ना; दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते; दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त; हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते।

तुम्हारे जैसे लोग जबसे मेहरबान नहीं रहे; तभी से ये मेरे जमीन-ओ-आसमान नहीं रहे; खंडहर का रूप धरने लगे है बाग शहर के; वो फूल-ओ-दरख्त वो समर यहाँ नहीं रहे; सब अपनी अपनी सोच अपनी फिकर के असीर हैं; तुम्हारे शहर में मेरे मिजाज़ दा नहीं रहे; उसे ये गम है शहर ने हमारी बात जान ली; हमें ये दुःख है उस के रंज भी निहां नहीं रहे; बहुत है यूँ तो मेरे इर्द-गिर्द मेरे आशना; तुम्हारे बाद धडकनों के राजदान नहीं रहे; असीर हो के रह गए हैं शहर की फिजाओं में; परिंदे वाकई चमन के तर्जुमान नहीं रहे।

तेरे लिए चलते थे... तेरे लिए चलते थे हम तेरे लिए ठहर गए; तू ने कहा तो जी उठे तू ने कहा तो मर गए; वक़्त ही जुदाई का इतना तवील हो गया; दिल में तेरे विसाल के जितने थे ज़ख़्म भर गए; होता रहा मुक़ाबला पानी का और प्यास का; सहरा उमड़ उमड़ पड़े दरिया बिफर बिफर गए; वो भी ग़ुबार-ए-ख़्वाब था हम ग़ुबार-ए-ख़्वाब थे; वो भी कहीं बिखर गया हम भी कहीं बिखर गए; आज भी इंतज़ार का वक़्त हुनूत हो गया; ऐसा लगा के हश्र तक सारे ही पल ठहर गए; इतने क़रीब हो गए अपने रक़ीब हो गए; वो भी अदीम डर गया हम भी अदीम डर गए।

​​ऐसे चुप है कि ये मंज़िल​...​​​​​​​​ऐसे चुप है कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे​;​​तेरा मिलना भी जुदाई की घड़ी हो जैसे​;​​​​​​​अपने ही साये से हर कदम लरज़ जाता हूँ​;​​रास्ते में कोई दीवार खड़ी हो जैसे​;​​​​​कितने नादाँ हैं तेरे भूलने वाले कि तुझे​;​​याद करने के लिए उम्र पड़ी हो जैसे​;​​​ मंज़िलें दूर भी हैं मंज़िलें नज़दीक भी हैं​;​​अपने ही पाँवों में ज़ंजीर पड़ी हो जैसे​;​​​​​आज दिल खोल के रोए हैं तो यों खुश हैं फ़राज़ ​;​चंद लमहों की ये राहत भी बड़ी हो जैसे।

घर की दहलीज़ से... घर की दहलीज़ से बाज़ार में मत आ जाना; तुम किसी चश्म-ए-ख़रीदार में मत आ जाना; ख़ाक उड़ाना इन्हीं गलियों में भला लगता है; चलते फिरते किसी दरबार में मत आ जाना; यूँ ही ख़ुशबू की तरह फैलते रहना हर सू; तुम किसी दाम-ए-तलब-गार में मत आ जाना; दूर साहिल पे खड़े रह के तमाशा करना; किसी उम्मीद के मझदार में मत आ जाना; अच्छे लगते हो के ख़ुद-सर नहीं ख़ुद्दार हो तुम; हाँ सिमट के बुत-ए-पिंदार में मत आ जाना; चाँद कहता हूँ तो मतलब न ग़लत लेना तुम; रात को रोज़न-ए-दीवार में मत आ जाना।

मैं इस उम्मीद पे डूबा... मैं इस उम्मीद पे डूबा कि तू बचा लेगा; अब इसके बाद मेरा इम्तिहान क्या लेगा; ये एक मेला है वादा किसी से क्या लेगा; ढलेगा दिन तो हर एक अपना रास्ता लेगा; मैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊँगा; कोई चिराग नहीं हूँ जो फिर जला लेगा; कलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिए; जो बे-अमल है वो बदला किसी से क्या लेगा; मैं उसका हो नहीं सकता बता न देना उसे; सुनेगा तो लकीरें हाथ की अपनी जला लेगा; हज़ार तोड़ के आ जाऊँ उस से रिश्ता वसीम ; मैं जानता हूँ वो जब चाहेगा बुला लेगा।

तुम्हारे जैसे लोग जबसे मेहरबान नहीं रहे; तभी से ये मेरे जमीन-ओ-आसमान नहीं रहे; खंडहर का रूप धरने लगे है बाग शहर के; वो फूल-ओ-दरख्त वो समर यहाँ नहीं रहे; सब अपनी अपनी सोच अपनी फिकर के असीर हैं; तुम्हारें शहर में मेरे मिजाज़ दा नहीं रहें; उसे ये गम है शहर ने हमारी बात जान ली; हमें ये दुःख है उस के रंज भी निहां नहीं रहे; बोहत है यूँ तो मेरे इर्द-गिर्द मेरे आशना; तुम्हारे बाद धडकनों के राजदान नहीं रहे; असीर हो के रह गए हैं शहर की फिजाओं में; परिंदे वाकई चमन के तर्जुमान नहीं रहे।

बंद आँखों से न हुस्न-ए-शब का अंदाज़ा लगा; महमिल-ए-दिल से निकल सर को हवा ताज़ा लगा; देख रह जाए न तू ख़्वाहिश के गुम्बद में असीर; घर बनाता है तो सब से पहले दरवाज़ा लगा; हाँ समंदर में उतर लेकिन उभरने की भी सोच; डूबने से पहले गहराई का अंदाज़ा लगा; हर तरफ़ से आएगा तेरी सदाओं का जवाब; चुप के चंगुल से निकल और एक आवाज़ा लगा; सर उठा कर चलने की अब याद भी बाक़ी नहीं; मेरे झुकने से मेरी ज़िल्लत का अंदाज़ा लगा; रहम खा कर अर्श उस ने इस तरफ़ देखा मगर; ये भी दिल दे बैठने का मुझ को ख़मियाज़ा लगा।

बुझी नज़र तो करिश्मे भी... बुझी नज़र तो करिश्मे भी रोज़-ओ-शब के गये; कि अब तलक नही पलटे हैं लोग कब के गये; करेगा कौन तेरी बेवफ़ाइयों का गिला; यही है रस्म-ए-ज़माना तो हम भी अब के गये; मगर किसी ने हमे हमसफ़र नही जाना; ये और बात कि हम साथ साथ सब के गये; अब आये हो तो यहाँ क्या है देखने के लिये; ये शहर कब से है वीरां वो लोग कब के गये; गिरफ़्ता दिल थे मगर हौसला नही हारा; गिरफ़्ता दिल हैं मगर हौसले भी अब के गये; तुम अपनी शम-ए-तमन्ना को रो रहे हो फ़राज़ ; इन आँधियों मे तो प्यार-ए-चिराग सब के गये।

बड़ा वीरान मौसम है कभी मिलने चले आओ; हर एक जानिब तेरा ग़म है कभी मिलने चले आओ; हमारा दिल किसी गहरी जुदाई के भँवर में है; हमारी आँख भी नम है कभी मिलने चले आओ; मेरे हम-राह अगरचे दूर तक लोगों की रौनक़ है; मगर जैसे कोई कम है कभी मिलने चले आओ; तुम्हें तो इल्म है मेरे दिल-ए-वहशी के ज़ख़्मों को; तुम्हारा वस्ल मरहम है कभी मिलने चले आओ; अँधेरी रात की गहरी ख़मोशी और तनहा दिल; दिए की लौ भी मद्धम है कभी मिलने चले आओ; हवाओं और फूलों की नई ख़ुशबू बताती है; तेरे आने का मौसम है कभी मिलने चले आओ।

कब याद मे तेरा साथ नहीं कब हाथ में तेरा हाथ नहीं; साद शुक्र की अपनी रातो में अब हिज्र की कोई रात नहीं; मुश्किल है अगर हालत वह दिल बेच आए जा दे आए; दिल वालो कूचा-ए-जाना में क्या ऐसे भी हालात नहीं; जिस धज से कोई मकतल में गया वो शान सलामत रहती है; ये जान तो आनी-जानी है इस जान की तो कोई बात नहीं; मैदान-ए-वफ़ा दरबार नहीं या नाम-ओ-नसब की पूछ कहाँ; आशिक तो किसी का नाम नहीं कुछ इश्क किसी की जात नहीं; गर बाज़ी इश्क की बाज़ी है ओ चाहो लगा दो दर कैसा; गर जीत गए तो क्या कहने हारे भी तो बाज़ी मात नहीं।

जाने कब से तरस रहे है जाने कब से तरस रहे हैं हम खुल कर मुस्कानें को; इतने बन्धन ठीक नहीं हैं हम जैसे दीवानों को; लिये जा रहे हो दिल मेरा लेकिन इतना याद रहे; बेच न देना बाज़ारों में इस अनमोल ख़जाने को; तन की दूरी तो सह लूँगा मन की दूरी ठीक नहीं; प्यार नहीं कहते हैं केवल आँखों के मिल जाने को; यह अपना दुर्भाग्य विधाता ने तन दिया अभावों का; मन दे दिया किसी राजा का जग में प्यार लुटाने को; सुख-दुख अगर देखना है तो अपने चेहरे में देखो; होंठ मिले हैं मुस्कानें को आँखें अश्क़ बहाने को।

कि मैं जिंदा हूं अभी किसी रंजिश को हवा दो कि मैं जिंदा हूं अभी; मुझको अहसास दिल दो कि मैं जिंदा हूँ अभी; किसी... मेरे रुकने से मेरी सांसे भी रुक जाएंगी; फांसले और बढ़ा दो कि मैं जिंदा हूँ अभी; मुझको अहसास दिल दो कि मैं जिंदा हूँ अभी; किसी... ज़हर पीने की तो आदत थी जमाने वालों; अब कोई और दवा दो कि मैं जिंदा हूँ अभी; मुझको अहसास दिल दो कि मैं जिंदा हूँ अभी; किसी... चलती राहों में यूं ही आँख लगी है फाकिर; भीड़ लोगों की हटा दो कि मैं जिंदा हूँ अभी; मुझको अहसास दिल दो कि मैं जिंदा हूँ अभी; किसी...

सारी बस्ती में ये जादू... सारी बस्ती में ये जादू नज़र आए मुझको; जो दरीचा भी खुले तू नज़र आए मुझको; सदियों का रस जगा मेरी रातों में आ गया; मैं एक हसीन शक्स की बातों में आ गया; जब तस्सवुर मेरा चुपके से तुझे छू आए; देर तक अपने बदन से तेरी खुशबू आए; गुस्ताख हवाओं की शिकायत न किया कर; उड़ जाए दुपट्टा तो खनक ओढ़ लिया कर; तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं; एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं; रात के सन्नाटे में हमने क्या-क्या धोखे खाए हैं; अपना ही जब दिल धड़का तो हम समझे वो आए हैं।