ज़बाँ सुख़न को सुख़न... ज़बाँ सुख़न को सुख़न बाँकपन को तरसेगा; सुख़नकदा मेरी तर्ज़-ए-सुख़न को तरसेगा; नये प्याले सही तेरे दौर में साक़ी; ये दौर मेरी शराब-ए-कोहन को तरसेगा; मुझे तो ख़ैर वतन छोड़ के अमन न मिली; वतन भी मुझ से ग़रीब-उल-वतन को तरसेगा; उन्हीं के दम से फ़रोज़ाँ हैं मिल्लतों के चराग़; ज़माना सोहबत-ए-अरबाब-ए-फ़न को तरसेगा; बदल सको तो बदल दो ये बाग़बाँ वरना; ये बाग़ साया-ए-सर्द-ओ-समाँ को तरसेगा; हवा-ए-ज़ुल्म यही है तो देखना एक दिन; ज़मीं पानी को सूरज किरन को तरसेगा।

​बहुत पानी बरसता है... बहुत पानी बरसता है तो मिट्टी बैठ जाती है; न रोया कर बहुत रोने से छाती बैठ जाती है; यही मौसम था जब नंगे बदन छत पर टहलते थे; यही मौसम हैं अब सीने में सर्दी बैठ जाती है; चलो माना कि शहनाई मोहब्बत की निशानी है; मगर वो शख़्स जिसकी आ के बेटी बैठ जाती है; बढ़े बूढ़े कुएँ में नेकियाँ क्यों फेंक आते हैं; कुएँ में छुप के क्यों आख़िर ये नेकी बैठ जाती है; नक़ाब उलटे हुए गुलशन से वो जब भी गुज़रता है; समझ के फूल उसके लब पे तितली बैठ जाती है...

कभी क़रीब कभी दूर हो के रोते हैं; मोहब्बतों के भी मौसम अजीब होते हैं; ज़िहानतों को कहाँ वक़्त ख़ूँ बहाने का; हमारे शहर में किरदार क़त्ल होते हैं; फ़ज़ा में हम ही बनाते हैं आग के मंज़र; समंदरों में हमीं कश्तियाँ डुबोते हैं; पलट चलें के ग़लत आ गए हमीं शायद; रईस लोगों से मिलने के वक़्त होते हैं; मैं उस दियार में हूँ बे-सुकून बरसों से; जहाँ सुकून से अजदाद मेरे सोते हैं; गुज़ार देते हैं उम्रें ख़ुलूस की ख़ातिर; पुराने लोग भी अज़हर अजीब होते हैं।

दिल को अब यूँ... दिल को अब यूँ तेरी हर एक अदा लगती है; जिस तरह नशे की हालत में हवा लगती है; रतजगे खवाब परेशाँ से कहीं बेहतर हैं; लरज़ उठता हूँ अगर आँख ज़रा लगती है; ऐ रगे-जाँ के मकीं तू भी कभी गौर से सुन; दिल की धडकन तेरे कदमों की सदा लगती है; गो दुखी दिल को हमने बचाया फिर भी; जिस जगह जखम हो वाँ चोट लगती है; शाखे-उममीद पे खिलते हैं तलब के गुनचे; या किसी शोख के हाथों में हिना लगती है; तेरा कहना कि हमें रौनके महफिल में फराज़ ; गो तसलली है मगर बात खुदा लगती है।

मिलने को तो ज़िंदगी में...मिलने को तो ज़िंदगी में कईं हमसफ़र मिले;पर उनकी तबियत से अपनी तबियत नही मिली;​​चेहरों में दूसरों के तुझे ढूंढते रहे दर-ब-दर;सूरत नही मिली तो कहीं सीरत नही मिली;​​​​​बहुत देर से आया था वो मेरे पास यारों​​;​​​अल्फाज ढूंढने की भी मोहलत नही मिली​​;​​​​तुझे गिला था कि तवज्जो न मिली तुझे;​​ ​ मगर हमको तो खुद अपनी मुहब्बत नही मिली​​;​​​​हमे तो तेरी हर आदत अच्छी लगी फ़राज़ ​​;पर अफ़सोस तेरी आदत से मेरी आदत नही मिली​।

रहे जो ज़िंदगी में ज़िंदगी का आसरा हो कर; वही निकले सरीर-आरा क़यामत में ख़ुदा हो कर; हक़ीक़त-दर-हक़ीक़त बुत-कदे में है न काबे में; निगाह-ए-शौक़ धोखे दे रही है रहनुमा हो कर; अभी कल तक जवानी के ख़ुमिस्ताँ थे निगाहों में; ये दुनिया दो ही दिन में रह गई है क्या से क्या हो कर; मेरे सज़्दों की या रब तिश्ना-कामी क्यों नहीं जाती; ये क्या बे-ए तिनाई अपने बंदे से ख़ुदा हो कर; बला से कुछ हो हम एहसान अपनी ख़ू न छोड़ेंगे; हमेशा बेवफ़ाओं से मिलेंगे बा-वफ़ा हो कर।

खुलेगी इस नज़र पे... खुलेगी इस नज़र पे चश्म-ए-तर आहिस्ता आहिस्ता; किया जाता है पानी में सफ़र आहिस्ता आहिस्ता; कोई ज़ंजीर फिर वापस वहीं पर ले के आती है; कठिन हो राह तो छूटता है घर आहिस्ता आहिस्ता; बदल देना है रास्ता या कहीं पर बैठ जाना है; कि थकता जा रहा है हमसफ़र आहिस्ता आहिस्ता; ख़लिश के साथ इस दिल से न मेरी जाँ निकल जाये; खिंचे तीर-ए-शनासाई मगर आहिस्ता आहिस्ता; मेरी शोला-मिज़ाजी को वो जंगल कैसे रास आये; हवा भी साँस लेती हो जिधर आहिस्ता आहिस्ता।

कहाँ ले जाऊँ दिल दोनों जहाँ में इसकी मुश्किल है; यहाँ परियों का मजमा है वहाँ हूरों की महफ़िल है; इलाही कैसी-कैसी सूरतें तूने बनाई हैं; के हर सूरत कलेजे से लगा लेने के क़ाबिल है; ये दिल लेते ही शीशे की तरह पत्थर पे दे मारा; मैं कहता रह गया ज़ालिम मेरा दिल है मेरा दिल; है जो देखा अक्स आईने में अपना बोले झुंजलाकर; अरे तू कौन है हट सामने से क्यों मुक़ाबिल है; हज़ारों दिल मसल कर पांओ से झुंजला के फ़रमाया; लो पहचानो तुम्हारा इन दिलों में कौन सा दिल है।

खुलेगी इस नज़र पे... खुलेगी इस नज़र पे चश्म-ए-तर आहिस्ता आहिस्ता; किया जाता है पानी में सफ़र आहिस्ता आहिस्ता; कोई ज़ंजीर फिर वापस वहीं पर ले के आती है; कठिन हो राह तो छूटता है घर आहिस्ता आहिस्ता; बदल देना है रास्ता या कहीं पर बैठ जाना है; कि थकता जा रहा है हमसफ़र आहिस्ता आहिस्ता; ख़लिश के साथ इस दिल से न मेरी जाँ निकल जाये; खिंचे तीर-ए-शनासाई मगर आहिस्ता आहिस्ता; मेरी शोला-मिज़ाजी को वो जंगल कैसे रास आये; हवा भी साँस लेती हो जिधर आहिस्ता आहिस्ता।

बहुत मिला न मिला ज़िन्दगी से ग़म क्या है; मता-ए-दर्द बहम है तो बेश-ओ-कम क्या है; हम एक उम्र से वाक़िफ़ हैं अब न समझाओ; के लुत्फ़ क्या है मेरे मेहरबाँ सितम क्या है; करे न जग में अलाव तो शेर किस मक़सद; करे न शहर में जल-थल तो चश्म-ए-नम क्या है; अजल के हाथ कोई आ रहा है परवाना; न जाने आज की फ़ेहरिस्त में रक़म क्या है; सजाओ बज़्म ग़ज़ल गाओ जाम ताज़ा करो; बहुत सही ग़म-ए-गेती शराब कम क्या है; लिहाज़ में कोई कुछ दूर साथ चलता है; वरना दहर में अब ख़िज़्र का भरम क्या है।

रात के ख्वाब सुनाए किस को रात के ख्वाब सुहाने थे; धुंधले धुंधले चेहरे थे पर सब जाने पहचाने थे; जिद्दी वहशी अल्हड़ चंचल मीठे लोग रसीले लोग; होंठ उन के ग़ज़लों के मिसरे आंखों में अफ़साने थे; ये लड़की तो इन गलियों में रोज़ ही घूमा करती थी; इस से उन को मिलना था तो इस के लाख बहाने थे; हम को सारी रात जगाया जलते बुझते तारों ने; हम क्यूं उन के दर पे उतरे कितने और ठिकाने थे; वहशत की उन्वान हमारी इन में से जो नार बनी; देखेंगे तो लोग कहेंगे इन्शा जी दीवाने थे।

रेत की सूरत जाँ प्यासी थी आँख हमारी नम न हुई; तेरी दर्द-गुसारी से भी रूह की उलझन कम न हुई; शाख़ से टूट के बे-हुरमत हैं वैसे बे-हुरमत थे; हम गिरते पत्तों पे मलामत कब मौसम मौसम न हुई; नाग-फ़नी सा शोला है जो आँखों में लहराता है; रात कभी हम-दम न बनी और नींद कभी मरहम न हुई; अब यादों की धूप छाँव में परछाईं सा फिरता हूँ; मैंने बिछड़ कर देख लिया है दुनिया नरम क़दम न हुई; मेरी सहरा-ज़ाद मोहब्बत अब्र-ए-सियह को ढूँडती है; एक जनम की प्यासी थी इक बूँद से ताज़ा-दम न हुई।

तुम्हारी राह में... तुम्हारी राह में मिट्टी के घर नहीं आते; इसीलिए तो तुम्हें हम नज़र नहीं आते; मोहब्बतों के दिनों की यही ख़राबी है; ये रूठ जाएँ तो फिर लौटकर नहीं आते; जिन्हें सलीका है तहज़ीब-ए-ग़म समझने का; उन्हीं के रोने में आँसू नज़र नहीं आते; ख़ुशी की आँख में आँसू की भी जगह रखना; बुरे ज़माने कभी पूछकर नहीं आते; बिसात-ए-इश्क पे बढ़ना किसे नहीं आता; यह और बात कि बचने के घर नहीं आते; वसीम जहन बनाते हैं तो वही अख़बार; जो ले के एक भी अच्छी ख़बर नहीं आते।

बुझी नज़र तो करिश्मे भी रोज़ो शब के गये; कि अब तलक नही पलटे हैं लोग कब के गये; करेगा कौन तेरी बेवफ़ाइयों का गिला; यही है रस्मे ज़माना तो हम भी अब के गये; मगर किसी ने हमें हमसफ़र नही जाना; ये और बात कि हम साथ साथ सब के गये; अब आये हो तो यहाँ क्या है देखने के लिए; ये शहर कब से है वीरां वो लोग कब के गये; गिरफ़्ता दिल थे मगर हौसला नहीं हारा; गिरफ़्ता दिल है मगर हौंसले भी अब के गये; तुम अपनी शम्ऐ-तमन्ना को रो रहे हो फ़राज़ ; इन आँधियों में तो प्यारे चिराग सब के गये।

बुझी नज़र तो करिश्मे भी रोज़ो शब के गये; कि अब तलक नही पलटे हैं लोग कब के गये; करेगा कौन तेरी बेवफ़ाइयों का गिला; यही है रस्मे ज़माना तो हम भी अब के गये; मगर किसी ने हमें हमसफ़र नही जाना; ये और बात कि हम साथ साथ सब के गये; अब आये हो तो यहाँ क्या है देखने के लिए; ये शहर कब से है वीरां वो लोग कब के गये; गिरफ़्ता दिल थे मगर हौसला नहीं हारा; गिरफ़्ता दिल है मगर हौंसले भी अब के गये; तुम अपनी शम्ऐ-तमन्ना को रो रहे हो फ़राज़ ; इन आँधियों में तो प्यारे चिराग सब के गये।