वफ़ाएँ कर के... वफ़ाएँ कर के जफ़ाओं का ग़म उठाए जा; इसी तरह से ज़माने को आज़माए जा; किसी में अपनी सिफ़त के सिवा कमाल नहीं; जिधर इशारा-ए-फ़ितरत हो सिर झुकाए जा; वो लौ रबाब से निकली धुआँ उठा दिल से; वफ़ा का राग इसी धुन में गुनगुनाए जा; नज़र के साथ मोहब्बत बदल नहीं सकती; नज़र बदल के मोहब्बत को आज़माए जा; ख़ुदी-ए-इश्क़ ने जिस दिन से खोल दीं आँखें; है आँसुओं का तक़ाज़ा कि मुस्कुराए जा; थी इब्तिदा में ये तादीब-ए-मुफ़लिसी मुझ को; ग़ुलाम रह के गुलामी पे मुस्कुराए जा।

नयी-नयी आँखें हों तो... नयी-नयी आँखें हों तो हर मंज़र अच्छा लगता है; कुछ दिन शहर में घूमे लेकिन अब घर अच्छा लगता है; मिलने-जुलने वालों में तो सारे अपने जैसे हैं; जिससे अब तक मिले नहीं वो अक्सर अच्छा लगता है; मेरे आँगन में आये या तेरे सर पर चोट लगे; सन्नाटों में बोलने वाला पत्थर अच्छा लगता है; चाहत हो या पूजा सबके अपने-अपने साँचे हैं; जो मूरत में ढल जाये वो पैकर अच्छा लगता है; हमने भी सोकर देखा है नये-पुराने शहरों में; जैसा भी है अपने घर का बिस्तर अच्छा लगता है।

तन्हा तन्हा हम... तन्हा तन्हा हम रो लेंगे महफ़िल महफ़िल गायेंगे; जब तक आँसू पास रहेंगे तब तक गीत सुनायेंगे; तुम जो सोचो वो तुम जानो हम तो अपनी कहते हैं; देर न करना घर जाने में वरना घर खो जायेंगे; बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो; चार किताबें पढ़ कर वो भी हम जैसे हो जायेंगे; किन राहों से दूर है मंज़िल कौन सा रस्ता आसाँ है; हम जब थक कर रुक जायेंगे औरों को समझायेंगे; अच्छी सूरत वाले सारे पत्थर-दिल हो मुम्किन है; हम तो उस दिन राए देंगे जिस दिन धोका खायेंगे।

हम उनसे अगर मिल बैठते... हम उनसे अगर मिल बैठते है क्या दोष हमारा होता है; कुछ अपनी जसारत होती है कुछ उनका इशारा होता है; कटने लगी रातें आँखों में देखा नहीं पलकों पर अक्सर; याँ शामे-गरीबां का जुगनू या सुबह का तारा होता है; हम दिल को लिए हर देश फिरे इस जिंस के ग्राहक मिल न सके; ऐ बंजारों हम लोग चले हमको तो खसारा होता है; दफ्तर से उठे कैफे में गए कुछ शेर कहे कुछ कॉफ़ी पी; पूछो जो मआश का इंशा जी यूँ अपना गुज़ारा होता है। अनुवाद: जसारत = दिलेरी खसारा = नुकसान मआश = आजीविका

तो मैं भी ख़ुश हूँ कोई उस से जा के कह देना; अगर वो ख़ुश है मुझे बे-क़रार करते हुए; तुम्हें ख़बर ही नहीं है कि कोई टूट गया; मोहब्बतों को बहुत पाएदार करते हुए; मैं मुस्कुराता हुआ आईने में उभरूँगा; वो रो पड़ेगी अचानक सिंघार करते हुए; मुझे ख़बर थी कि अब लौट कर न आऊँगा; सो तुझ को याद किया दिल पे वार करते हुए; ये कह रही थी समुंदर नहीं ये आँखें हैं; मैं इन में डूब गया ए तिबार करते हुए; भँवर जो मुझ में पड़े हैं वो मैं ही जानता हूँ; तुम्हारे हिज्र के दरिया को पार करते हुए।

​आँखों के इंतज़ार ​को...​​​​​​आँखों के इंतज़ार ​को दे कर हुनर चला गया​;​​चाहा था एक शख़्स को जाने किधर चला गया​;​​​​​दिन की वो महफिलें गईं रातों के रतजगे गए​;​​कोई समेट कर मेरे शाम-ओ-सहर चला गया​;​​​​​झोंका है एक बहार का रंग-ए-ख़याल यार भी​;​​हर-सू बिखर-बिखर गई ख़ुशबू जिधर चला गया​;​​​​​उसके ही दम से दिल में आज धूप भी चाँदनी भी है​;​​देके वो अपनी याद के शम्स-ओ-क़मर चला गया;​​कूचा-ब-कूचा दर-ब-दर कब से भटक रहा है दिल​;​हमको भुला के राह वो अपनी डगर चला गया।

तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ यह कैसी तन्हाई है; तेरे साथ तेरी याद आई क्या तू सचमुच आई है; शायद वो दिन पहला दिन था पलकें बोझल होने का; मुझ को देखते ही जब उन की अँगड़ाई शरमाई है; उस दिन पहली बार हुआ था मुझ को रफ़ाक़ात का एहसास; जब उस के मलबूस की ख़ुश्बू घर पहुँचाने आई है; हुस्न से अर्ज़ ए शौक़ न करना हुस्न को ज़ाक पहुँचाना है; हम ने अर्ज़ ए शौक़ न कर के हुस्न को ज़ाक पहुँचाई है; एक तो इतना हब्स है फिर मैं साँसें रोके बैठा हूँ; वीरानी ने झाड़ू दे के घर में धूल उड़ाई है।

तमाम उम्र मेरी ज़िंदगी तमाम उम्र मेरी ज़िंदगी से कुछ न हुआ; हुआ अगर भी तो मेरी ख़ुशी से कुछ न हुआ; कई थे लोग किनारों से देखने वाले; मगर मैं डूब गया था किसी से कुछ न हुआ; हमें ये फ़िक्र के मिट्टी के हैं मकां अपने; उन्हें ये रंज कि बहती नदी से कुछ न हुआ; रहे वो क़ैद किसी ग़ैर के ख़यालों में; यही वजह कि मेरी बेरुख़ी से कुछ न हुआ; लगी जो आग तो सोचा उदास जंगल ने; हवा के साथ रही दोस्ती से कुछ न हुआ; मुझे मलाल बहुत टूटने का है लेकिन; करूँ मैं किससे गिला जब मुझी से कुछ न हुआ।

हर इक लम्हे की रग में... हर इक लम्हे की रग में दर्द का रिश्ता धड़कता है; वहाँ तारा लरज़ता है जो याँ पत्ता खड़कता है; ढके रहते हैं गहरे अब्र में बातिन के सब मंज़र; कभी इक लहज़ा-ए-इदराक बिजली सा कड़कता है; मुझे दीवाना कर देती है अपनी मौत की शोख़ी; कोई मुझ में रग-ए-इज़हार की सूरत फड़कता है; फिर इक दिन आग लग जाती है जंगल में हक़ीक़त के; कहीं पहले-पहल इक ख़्वाब का शोला भड़कता है; मेरी नज़रें ही मेरे अक्स को मजरूह करती हैं; निगाहें मुर्तकिज़ होती हैं और शीशा तड़कता है।

जो भी बुरा भला है... जो भी बुरा भला है अल्लाह जानता है; बंदे के दिल में क्या है अल्लाह जानता है; ये फर्श-ओ-अर्श क्या है अल्लाह जानता है; पर्दों में क्या छिपा है अल्लाह जानता है; जाकर जहाँ से कोई वापिस नहीं है आता; वो कौन सी जगह है अल्लाह जानता है; नेक़ी-बदी को अपने कितना ही तू छिपाए; अल्लाह को पता है अल्लाह जानता है; ये धूप-छाँव देखो ये सुबह-शाम देखो; सब क्यों ये हो रहा है अल्लाह जानता है; क़िस्मत के नाम को तो सब जानते हैं लेकिन क़िस्मत में क्या लिखा है अल्लाह जानता है।

तन्हा तन्हा हम... तन्हा तन्हा हम रो लेंगे महफ़िल महफ़िल गायेंगे; जब तक आँसू पास रहेंगे तब तक गीत सुनायेंगे; तुम जो सोचो वो तुम जानो हम तो अपनी कहते हैं; देर न करना घर जाने में वरना घर खो जायेंगे; बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो; चार किताबें पढ़ कर वो भी हम जैसे हो जायेंगे; किन राहों से दूर है मंज़िल कौन सा रस्ता आसाँ है; हम जब थक कर रुक जायेंगे औरों को समझायेंगे; अच्छी सूरत वाले सारे पत्थर-दिल हो मुमकिन है; हम तो उस दिन रो देंगे जिस दिन धोखा खायेंगे।

उक़ाबी शान से झपटे थे जो... उक़ाबी शान से झपटे थे जो बे-बालो-पर निकले; सितारे शाम को ख़ून-ए-फ़लक़ में डूबकर निकले; हुए मदफ़ून-ए-दरिया ज़ेरे-दरिया तैरने वाले; तमाचे मौज के खाते थे जो बनकर गुहर निकले; गुब्बार-ए-रहगुज़र हैं कीमिया पर नाज़ था जिनको; जबीनें ख़ाक पर रखते थे जो अक्सीरगर निकले; हमारा नर्म-रौ क़ासिद पयामे-ज़िन्दगी लाया; ख़बर देतीं थीं जिनको बिजलियाँ वो बेख़बर निकले; जहाँ में अहले-ईमाँ सूरत-ए-ख़ुर्शीद जीते हैं; इधर डूबे उधर निकले उधर डूबे इधर निकले।

सितम सिखलाएगा रस्मे-वफ़ा... सितम सिखलाएगा रस्मे-वफ़ा ऐसे नहीं होता; सनम दिखलाएँगे राहे-ख़ुदा ऐसे नहीं होता; गिनो सब हसरतें जो ख़ूँ हुई हैं तन के मक़तल में; मेरे क़ातिल हिसाबे-खूँबहा ऐसे नहीं होता; जहाने दिल में काम आती हैं तदबीरें न ताज़ीरें; यहाँ पैमाने-तस्लीमो-रज़ा ऐसे नहीं होता; हर इक शब हर घड़ी गुजरे क़यामत यूँ तो होता है; मगर हर सुबह हो रोजे़-जज़ा ऐसे नहीं होता; रवाँ है नब्ज़े-दौराँ गार्दिशों में आसमाँ सारे; जो तुम कहते हो सब कुछ हो चुका ऐसे नहीं होता।

हर शाम जलते जिस्मों का गाढ़ा धुआँ है शहर; मरघट कहाँ है कोई बताओ कहाँ है यह शहर; फुटपाथ पर जो लाश पड़ी है उसी की है; जिस गाँव को यकीं था की रोज़ी-रसाँ है शहर; मर जाइए तो नाम-ओ-नसब पूछता नहीं; मुर्दों के सिलसिले में बहुत मेहरबाँ है शहर; रह-रह कर चीख़ उठते हैं सन्नाटे रात को; जंगल छुपे हुए हैं वहीं पर जहाँ है शहर; भूचाल आते रहते हैं और टूटता नहीं; हम जैसे मुफ़लिसों की तरह सख़्त जाँ है शहर; लटका हुआ ट्रेन के डिब्बों में सुबह-ओ-शाम; लगता है अपनी मौत के मुँह में रवाँ है शहर।

ये चाँदनी भी जिन को... ये चाँदनी भी जिन को छूते हुए डरती है; दुनिया उंहीं फूलों कोपैरों से मसलती है; शोहरत की बुलंदी भी पल भर का तमशा है; जिस डाल पे बैठे हो वो टूट भी सकती है; लोबान में चिंगारी जैसे कोई रख दे; यूँ याद तेरी शब भर सीने में सुलगती है; आ जाता है ख़ुद खेँच कर दिल सीने से पटरी पर; जब रात की सरहद से इक रेल गुज़रती है; आँसू कभी पलकों पर ता देर नहीं रुकते; उड़ जाते हैं उए पंछी जब शाख़ लचकती है; ख़ुश रंग परिंदों के लौट आने के दिन आये; बिछड़े हुए मिलते हैं जब बर्फ़ पिघलती है।