किसी के बाप का... अगर ख़िलाफ़ हैं होने दो भगवान थोडे ही है; ये सब धुआँ है कोई आसमान थोडे ही है; लगेगी आग तो आएँगे घर कई लपेट में; यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोडे ही है; मैं जानता हूँ के दुश्मन भी कम नहीं लेकिन; हमारी तरह हथेली पे उनकी जान थोडे ही है; हमारे मुँह से जो निकले वही सदाक़त है; हमारे मुँह में तुम्हारी ज़ुबान थोडे ही है; जो आज मालिक बने बैठे हैं कल नहीं होंगे; किराएदार हैं ज़ाती मकान थोडे ही है; सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में; किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोडे ही है।

कहीं से कोई हर्फ़-ए-मोतबर... कहीं से कोई हर्फ़-ए-मोतबर शायद न आए; मुसाफ़िर लौट कर अब अपने घर शायद न आए; क़फ़स में आब-ओ-दाने की फ़रावानी बहुत है; असीरों को ख़याल-ए-बाल-ओ-पर शायद न आए; किसे मालूम अहल-ए-हिज्र पर ऐसे भी दिन आएँ; क़यामत सर से गुज़रे और ख़बर शायद न आए; जहाँ रातों को पड़े रहते हैं आँखें मूँद कर लोग; वहाँ महताब में चेहरा नज़र शायद न आए; कभी ऐसा भी दिन निकले के जब सूरज के हम-राह; कोई साहिब-नज़र आए मगर शायद न आए; सभी को सहल-अंगारी हुनर लगने लगी है; सरों पर अब ग़ुबार-ए-रह-गुज़र शायद न आए।

ए काश वो किसी दिन ए काश वो किसी दिन तनहाइयों में आयें; उनको ये राजे दिल हम महफ़िल में क्या बतायें; लगता है डर उन्हें तो हमराज़ लेके आयें; जो पूछना है पूछे कहना है जो सुनाएँ; तौबा हमारी हम जो उन्हें हाथ भी लगाएँ; ए काश वो किसी दिन तनहाइयों में आयें; उनको ये राजे दिल हम महफ़िल में क्या बतायें उन्हें इश्क ग़र ना होता पलके नही झुकाते; गालों पे सोख बादल जुल्फो के ना गिरते; कर दे ना क़त्ल हमको मासूम यह अदाएँ; ए काश वो किसी दिन तनहाइयों में आयें; उनको ये राजे दिल हम महफ़िल में क्या बतायें।

​रोने से और इश्क़ में... रोने से और् इश्क़ में बेबाक हो गए; धोए गए हम ऐसे कि बस पाक हो गए; सर्फ़-ए-बहा-ए-मै हुए आलात-ए-मैकशी; थे ये ही दो हिसाब सो यों पाक हो गए; रुसवा-ए-दहर गो हुए आवार्गी से तुम; बारे तबीयतों के तो चालाक हो गए; कहता है कौन नाला-ए-बुलबुल को बेअसर; पर्दे में गुल के लाख जिगर चाक हो गए; पूछे है क्या वजूद-ओ-अदम अहल-ए-शौक़ का; आप अपनी आग से ख़स-ओ-ख़ाशाक हो गए; करने गये थे उस से तग़ाफ़ुल का हम गिला; की एक् ही निगाह कि बस ख़ाक हो गए; इस रंग से उठाई कल उस ने असद की नाश; दुश्मन भी जिस को देख के ग़मनाक हो गए।

ये जो है हुक़्म मेरे पास न आए कोई; इसलिए रूठ रहे हैं कि मनाए कोई; ये न पूछो कि ग़म-ए-हिज्र में कैसी गुज़री; दिल दिखाने का हो तो दिखाए कोई; हो चुका ऐश का जलसा तो मुझे ख़त पहुँचा; आपकी तरह से मेहमान बुलाए कोई; तर्क-ए-बेदाद की तुम दाद न पाओ मुझसे; करके एहसान न एहसान जताए कोई; क्यों वो मय-दाख़िल-ए-दावत ही नहीं ऐ वाइज़; मेहरबानी से बुलाकर जो पिलाए कोई; सर्द-मेहरी से ज़माने के हुआ है दिल सर्द; रखकर इस चीज़ को क्या आग लगाए कोई; आपने दाग़ को मुँह भी न लगाया अफ़सोस; उसको रखता था कलेजे से लगाए कोई।

ये जो है हुक़्म मेरे पास न आए कोई; इसलिए रूठ रहे हैं कि मनाए कोई; ये न पूछो कि ग़म-ए-हिज्र में कैसी गुज़री; दिल दिखाने का हो तो दिखाए कोई; हो चुका ऐश का जलसा तो मुझे ख़त पहुँचा; आपकी तरह से मेहमान बुलाए कोई; तर्क-ए-बेदाद की तुम दाद न पाओ मुझसे; करके एहसान न एहसान जताए कोई; क्यों वो मय-दाख़िल-ए-दावत ही नहीं ऐ वाइज़; मेहरबानी से बुलाकर जो पिलाए कोई; सर्द -मेहरी से ज़माने के हुआ है दिल सर्द; रखकर इस चीज़ को क्या आग लगाए कोई; आपने दाग़ को मुँह भी न लगाया अफ़सोस; उसको रखता था कलेजे से लगाए कोई।

आज किसी ने बातों बातों में... आज किसी ने बातों बातों में जब उन का नाम लिया; दिल ने जैसे ठोकर खाई दर्द ने बढ़कर थाम लिया; घर से दामन झाड़ के निकले वहशत का सामान न पूछ; यानी गर्द-ए-राह से हमने रख़्त-ए-सफ़र का काम लिया; दीवारों के साये-साये उम्र बिताई दीवाने; मुफ़्त में तनासानि-ए-ग़म का अपने पर इल्ज़ाम लिया; राह-ए-तलब में चलते चलते थक के जब हम चूर हुए; ज़ुल्फ़ की ठंडी छांव में बैठे पल दो पल आराम लिया; होंठ जलें या सीना सुलगे कोई तरस कब खाता है; जाम उसी का जिसने ताबाँ जुर्रत से कुछ काम लिया।

ग़मों से यूँ वो फ़रार... ग़मों से यूँ वो फ़रार इख़्तियार करता था; फ़ज़ा में उड़ते परिंदे शुमार करता था; बयान करता था दरिया के पार के क़िस्से; ये और बात वो दरिया न पार करता था; बिछड़ के एक ही बस्ती में दोनों ज़िंदा हैं; मैं उस से इश्क़ तो वो मुझ से प्यार करता था; यूँ ही था शहर की शख़्सियतों को रंज उस से; कि वो ज़िदें भी बड़ी पुर-वक़ार करता था; कल अपनी जान को दिन में बचा नहीं पाया; वो आदमी के जो आहाट पे वार करता था; सदाक़तें थीं मेरी बंदगी में जब अज़हर ; हिफ़ाज़तें मेरी परवर-दिगार करता था।

काँटा सा जो चुभा था... काँटा सा जो चुभा था वो लौ दे गया है क्या; घुलता हुआ लहू में ये ख़ुर्शीद सा है क्या; पलकों के बीच सारे उजाले सिमट गए; साया न साथ दे ये वही मरहला है क्या; मैं आँधियों के पास तलाश-ए-सबा में हूँ; तुम मुझ से पूछते हो मेरा हौसला है क्या; साग़र हूँ और मौज के हर दाएरे में हूँ; साहिल पे कोई नक़्श-ए-क़दम खो गया है क्या; सौ सौ तरह लिखा तो सही हर्फ़-ए-आरज़ू; इक हर्फ़-ए-आरज़ू ही मेरी इंतिहा है क्या; क्या फिर किसी ने क़र्ज़-ए-मुरव्वत अदा किया; क्यों आँख बे-सवाल है दिल फिर दुखा है क्या।

टूटी है मेरी नींद... टूटी है मेरी नींद मगर तुमको इससे क्या; बजते रहें हवाओं से दर तुमको इससे क्या; तुम मौज-मौज मिस्ल-ए-सबा घूमते रहो; कट जाएँ मेरी सोच के पर तुमको इससे क्या; औरों का हाथ थामो उन्हें रास्ता दिखाओ; मैं भूल जाऊँ अपना ही घर तुमको इससे क्या; अब्र-ए-गुरेज़-पा को बरसने से क्या ग़रज़; सीपी में बन न पाए गुहर तुमको इससे क्या; ले जाएँ मुझको माल-ए-ग़नीमत के साथ उदू; तुमने तो डाल दी है सिपर तुमको इससे क्या; तुमने तो थक के दश्त में ख़ेमे लगा लिए; तन्हा कटे किसी का सफ़र तुमको इससे क्या।

इस बार उन से मिल के जुदा हम जो हो गए; उन की सहेलियों के भी आँचल भिगो गए; चौराहों का तो हुस्न बढ़ा शहर के मगर; जो लोग नामवर थे वो पत्थर के हो गए; सब देख कर गुज़र गए एक पल में और हम; दीवार पर बने हुए मंज़र में खो गए; मुझ को भी जागने की अज़ीयत से दे नजात; ऐ रात अब तो घर के दर ओ बाम सो गए; किस किस से और जाने मोहब्बत जताते हम; अच्छा हुआ कि बाल ये चाँदी के हो गए; इतनी लहू-लुहान तो पहले फ़ज़ा न थी; शायद हमारी आँखों में अब ज़ख़्म हो गए; इख़्लास का मुज़ाहिरा करने जो आए थे; अज़हर तमाम ज़ेहन में काँटे चुभो गए।

अभी आँखें खुली हैं... अभी आँखें खुली हैं और क्या क्या देखने को; मुझे पागल किया उस ने तमाशा देखने को; वो सूरत देख ली हम ने तो फिर कुछ भी न देखा; अभी वर्ना पड़ी थी एक दुनिया देखने को; तमन्ना की किसे परवाह कि सोने जागने मे; मुयस्सर हैं बहुत ख़्वाब-ए-तमन्ना देखने को; ब-ज़ाहिर मुतमइन मैं भी रहा इस अंजुमन में; सभी मौजूद थे और वो भी ख़ुश था देखने को; अब उस को देख कर दिल हो गया है और बोझल; तरसता था यही देखो तो कितना देखने को; छुपाया हाथ से चेहरा भी उस ना-मेहरबाँ ने; हम आए थे ज़फ़र जिस का सरापा देखने को।

भीड़ है बर-सर-ए-बाज़ार... भीड़ है बर-सर-ए-बाज़ार कहीं और चलें; आ मेरे दिल मेरे ग़म-ख़्वार कहीं और चलें; कोई खिड़की नहीं खुलती किसी बाग़ीचे में; साँस लेना भी है दुश्वार कहीं और चलें; तू भी मग़मूम है मैं भी हूँ बहुत अफ़्सुर्दा; दोनों इस दुख से हैं दो-चार कहीं और चलें; ढूँढते हैं कोई सर-सब्ज़ कुशादा सी फ़ज़ा; वक़्त की धुंध के उस पार कहीं और चलें; ये जो फूलों से भरा शहर हुआ करता था; उस के मंज़र हैं दिल-आज़ार कहीं और चलें; ऐसे हँगामा-ए-महशर में तो दम घुटता है; बातें कुछ करनी हैं इस बार कहीं और चलें।

राहत-ए-जाँ से तो ये दिल... राहत-ए-जाँ से तो ये दिल का बवाल अच्छा है; उस ने पूछा तो है इतना तेरा हाल अच्छा है; माह अच्छा है बहुत ही न ये साल अच्छा है; फिर भी हर एक से कहता हूँ कि हाल अच्छा है; तेरे आने से कोई होश रहे या न रहे; अब तलक तो तेरे बीमार का हाल अच्छा है; ये भी मुमकिन है तेरी बात ही बन जाए कोई; उसे दे दे कोई अच्छी सी मिसाल अच्छा है; दाएँ रुख़्सार पे आतिश की चमक वजह-ए-जमाल; बाएँ रुख़्सार की आग़ोश में ख़ाल अच्छा है; क्यों परखते हो सवालों से जवाबों को अदीम ; होंठ अच्छे हों तो समझो कि सवाल अच्छा है।

वो कभी मिल जाएँ तो... वो कभी मिल जाएँ तो क्या कीजिए; रात दिन सूरत को देखा कीजिए; चाँदनी रातों में इक इक फूल को; बे-ख़ुदी कहती है सजदा कीजिए; जो तमन्ना बर न आए उम्र भर; उम्र भर उस की तमन्ना कीजिए; इश्क़ की रंगीनियों में डूब कर; चाँदनी रातों में रोया कीजिए; पूछ बैठे हैं हमारा हाल वो; बे-ख़ुदी तू ही बता क्या कीजिए; हम ही उस के इश्क़ के क़ाबिल न थे; क्यों किसी ज़ालिम का शिकवा कीजिए; आप ही ने दर्द-ए-दिल बख़्शा हमें; आप ही इस का मुदावा कीजिए; कहते हैं अख़्तर वो सुन कर मेरे शेर; इस तरह हम को न रुसवा कीजिए।