दुनिया है पत्थर की जज़्बात नहीं समझती; दिल में जो छुपी है वो बात नहीं समझती; चाँद तनहा है तारो की इस बारात में; दर्द मगर चाँद का ज़ालिम यह रात नहीं समझती।

कही ईसा कहीं मौला कहीं भगवान रहते है; हमारे हाल से शायद सभी अंजान रहते हैं; चले आये तबीयत आज भारी सी लगी अपनी; सुना था आपकी बस्ती में कुछ इंसान रहते है।

शिष्य ने बुद्ध से पुछा,"ज़हर क्या होता है"?
बुद्ध ने बहुत सुन्दर जवाब दिया...
..."हर वो चीज़ जो ज़िन्दगी में आवश्यकता से अत्यधिक होती है वही ज़हर होती है..."

प्यार किसी से जितना किया रुस्वाई ही मिली है; वफ़ा चाहे जितनी भी की बेवफाई ही मिली है; जितना भी किसी को अपना बना कर देखा; जब आँख खुली तो तन्हाई ही मिली है।

बिन बताये उसने ना जाने क्यों ये दूरी कर दी; बिछड़ के उसने मोहब्बत ही अधूरी कर दी; मेरे मुकद्दर में ग़म आये तो क्या हुआ; खुदा ने उसकी ख्वाहिश तो पूरी कर दी।

आरज़ू होनी चाहिये किसी को याद करने की,
लम्हें तो अपने आप ही मिल जाते हैं ..
कौन पूछता है पिंजरे में बंद पंछियों को,
याद वही आते हैं, जो उड़ जाते हैं ….!

तन्हाइयों के शहर में एक घर बना लिया; रुसवाइयों को अपना मुक़द्दर बना लिया; देखा है यहाँ पत्थर को पूजते हैं लोग; हमने भी इसलिए अपने दिल को पत्थर बना लिया।

खुद से भी ज्यादा उन्हें प्यार किया करते थे; उनकी ही याद में दिन रात जिया करते थे; गुज़रा नहीं जाता अब उन राहों से; जहाँ रुक कर हम उनका इंतज़ार किया करते थे।

बढ़ी जो हद से तो सारे तिलिस्म तोड़ गयी; वो खुश दिली जो दिलों को दिलों से जोड़ गयी; अब्द की राह पे बे-ख्वाब धड़कनों की धमक; जो सो गए उन्हें बुझते जगो में छोड़ गयी।

दिल के दर्द को दिल तोड़ने वाले क्या जाने; प्यार की रस्मों को यह ज़माने वाले क्या जाने; होती है कितनी तकलीफ कब्र के नीचे; यह ऊपर से फूल चढ़ाने वाले क्या जाने।

दिलों की बंद खिड़की खोलना अब जुर्म जैसा है; भरी महफिल में सच बोलना अब जुर्म जैसा है; हर ज्यादती को सहन कर लो चुपचाप; शहर में इस तरह से चीखना जुर्म जैसा है।

दिल में छिपी यादों से मैं सवारूँ तुझे,
तू दिखे तो अपनी आँखों मै उतारू तुझे !
तेरे नाम को अपने लबों पर ऐसे सजाऊ,
गर सो भी जाऊ तो ख्वाबो में पुकारू तुझे !!

मोहब्बत हर इंसान को आज़माती है; किसी से रूठ जाती है किसी पे मुस्कुराती है; यह मोहब्बत का खेल ही कुछ ऐसा है; किसी का कुछ नहीं जाता और किसी की जान चली जाती है।

ताबीर जो मिल जाएं तो एक ख्वाब बहुत था; जो शख्स गंवा बैठी हूं नायाब बहुत था; मैं भला कैसे बचा लेती कश्ती-ए-दिल को सागर से; दरिया-ए- मोहब्बत में सैलाब बहुत था।

तुम न आए तो क्या सहर न हुई; हाँ मगर चैन से बसर न हुई; मेरा नाला सुना ज़माने ने; एक तुम हो जिसे ख़बर न हुई। शब्दार्थ: सहर = सुबह बसर = गुजरना नाला = रोना-धोना शिकवा